Friday, 3 January 2014

हंसना भूल गया है मानव


हंसना भूल गया है मानव

हंसना भूल गया है मानव
इस दुखी संसार मे
जिन्द्गी की उलझन मे उलझा
डूब रहा बीच मझधार मे

हंसना भूल गया है मानव
सामाजिकता मे नैतिकता
लुप्त हो रही
मेले लगते व्यापार के
संबंधों के गलियार मे

हंसना भूल गया है मानव

अपराधों की हो रही पों बारह
रक्षकों के दरबार मे
बेरोजगारी का तमगा
लटके युवा गलहार मे

हंसना भूल गया है मानव

अतिमहत्वाकांक्षी होना
पड़ रहा है भारी
भटक रही है धन वा काम के लोभ मे
युवा पीढ़ी सारी

हंसना भूल गया है मानव

कवि है भूल गया कविता
समय के इस बहाव मे
वक्त काटता हर मानव
जीवन के गलियार मे

हंसना भूल गया है मानव

पाप घटें पुण्य बढ़े जब
मानवता सर चढ़ बोले तब
संस्कारों के बढते चरण
पावन हो जाए जब
जब रोतों को हंसाये कोई
जब गिरतों को उठाये कोई

तब हंसना सीखेगा मानव
तब हंसना सीखेगा मानव

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