Thursday, 23 January 2014

क्षुधा अपनी मैं बुझाऊँ कैसे


क्षुधा अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
क्षुधा अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
क्षुधा मेरी जिसका कोई रूप नहीं है
मोक्ष मार्ग पर आऊँ कैसे      
जलजीवा हूँ बिन जल
जीवन पाऊँ कैसे
क्षुधा अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
भाव भयंकर होते इस युग में
कलियुग में जीवन पाऊँ कैसे
क्षुधा अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
कानन अब बिन पुष्प हो गए
उपवन में फूल खिलाऊँ कैसे
क्षुधा अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
मनुज आज असहज लग रहा
कोविद आज परवेद हो गया
इन सबको सुध मैं दिलाऊँ कैसे
क्षुधा अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
आसक्ति का अभाव लग रहा
निर्मलता का अभाव हो गया
पुण्य भाव मैं जगाऊँ कैसे
इनको राह दिखाऊँ कैसे
क्षुधा अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
दुर्जन सज्जन कब होवेंगे
विधि लेख अब साथ न देता
संवेदना अब लुप्त हो रही
भंवरा मधु को तरस रहा है
मधु के बाग़ लगाऊँ कैसे
क्षुधा अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
अहंकार पूँजी बन निखरा
असुरों का अब रौब है बढ़ता                             
उत्कर्ष मार्ग अब पाऊँ कैसे
क्षुधा अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
अम्बर धुंधला – धुंधला सा दिखता
पर्वत लघु प्रतीत अब  होते
निर्जर अब अब मानव न होता
दीनबंधु न दर्शन होते
सुरसरिता का जल न निर्मल
फूलों से खुशबू है ओझल
तुझको पुष्प चढाऊँ कैसे
क्षुधा अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
मोक्ष मार्ग पर आऊँ कैसे      

No comments:

Post a Comment