क्षुधा अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
क्षुधा
अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
क्षुधा
मेरी जिसका कोई रूप नहीं है
मोक्ष
मार्ग पर आऊँ कैसे
जलजीवा
हूँ बिन जल
जीवन
पाऊँ कैसे
क्षुधा
अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
भाव
भयंकर होते इस युग में
कलियुग
में जीवन पाऊँ कैसे
क्षुधा
अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
कानन
अब बिन पुष्प हो गए
उपवन
में फूल खिलाऊँ कैसे
क्षुधा
अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
मनुज
आज असहज लग रहा
कोविद
आज परवेद हो गया
इन
सबको सुध मैं दिलाऊँ कैसे
क्षुधा
अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
आसक्ति
का अभाव लग रहा
निर्मलता
का अभाव हो गया
पुण्य
भाव मैं जगाऊँ कैसे
इनको
राह दिखाऊँ कैसे
क्षुधा
अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
दुर्जन
सज्जन कब होवेंगे
विधि
लेख अब साथ न देता
संवेदना
अब लुप्त हो रही
भंवरा
मधु को तरस रहा है
मधु
के बाग़ लगाऊँ कैसे
क्षुधा
अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
अहंकार
पूँजी बन निखरा
असुरों
का अब रौब है बढ़ता
उत्कर्ष
मार्ग अब पाऊँ कैसे
क्षुधा
अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
अम्बर
धुंधला – धुंधला सा दिखता
पर्वत
लघु प्रतीत अब होते
निर्जर
अब अब मानव न होता
दीनबंधु
न दर्शन होते
सुरसरिता
का जल न निर्मल
फूलों
से खुशबू है ओझल
तुझको
पुष्प चढाऊँ कैसे
क्षुधा
अपनी मैं बुझाऊँ कैसे
मोक्ष
मार्ग पर आऊँ कैसे
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