Tuesday 29 January 2019

मुझे खुद से हैं बहुत सी उम्मीदें


मुझे खुद से हैं बहुत सी उम्मीदें

मुझे खुद से हैं बहुत सी उम्मीदें
चरितार्थ करने ही होंगे मुझे अपने सपने
मंजिल के चरम को छूना ही होगा मुझको
आखिर मुझे खुद से हैं बहुत सी उम्मीदें

रोशन करना ही होगा अपना आशियाँ मुझको
चीरकर अन्धकार को आगे बढना ही होगा मुझको
अपने पंखों को एक खुला आसमां देना ही होगा
आखिर मुझे खुद से हैं बहुत सी उम्मीदें

पानी ही होगी मंजिल अपने प्रयासों के बूते
कोशिशों का एक समंदर सजाना ही होगा मुझको
अपनी हर एक कोशिश को दिखानी होगी सच की राह
आखिर मुझे खुद से हैं बहुत सी उम्मीदें

खुद को खुद का खैख्वाह बनाना ही होगा मुझको
“ एकला चलो ” ये गीत गुनगुनाना ही होगा मुझको
अपने सपनों का , अपनी कोशिशों का एक महल सजाना ही होगा मुझको
आखिर मुझे खुद से हैं बहुत सी उम्मीदें





कोमल पंखुड़ियों में




कोमल पंखुड़ियों में

कोमल पंखुड़ियों में
जागता है
जिन्दगी का सपना
एक एहसास जो ले जाता
नवजीवन की ओर

पुष्प खिलते हैं , बातें करते हैं
महकते हैं , चेहकते हैं
प्रफुल्लित कर ले चलते हैं
नवजीवन की ओर

हमसे बहुत कुछ
 बयाँ करते हैं पुष्प
उनकी महक
बहुत कुछ कहती हमसे
एहसास करो
नई जिन्दगी का
और बढ़ चलो
नवजीवन की ओर

पुष्पों से सुशोभित
एक उपवन
अनाया स ही अपनी ओर
आकर्षित कर लेता है
जीवन राग खुशबूमय हो जाता है
और स्वयं ही अग्रसर हो जाता है मानव मन
नवजीवन की ओर

Thursday 24 January 2019

पुरस्कार और पारितोषक, क्या मुझे प्रेरित करेंगे




पुरस्कार और पारितोषक

पुरस्कार और पारितोषक, क्या मुझे प्रेरित करेंगे
भ्रम और संदेह , क्या मेरी कोशिश में बाधा बनेंगे

तर्क और वितर्क से मेरे सपनों का नाता कैसा
लोभ  और तृष्णा , क्या मुझे पथ से विमुख करेंगे

मुझे तो बढ़ चलना है , कर्तव्य की राह पर
मुझे तो अग्रसर होना है , प्रयासों की अनुपम धरा पर

अनुभव और अनुभूति को कर लूंगा अपनी धरोहर
अंतःकरण को प्रेरित कर, बढ़ चलूँगा मंजिल शिखर पर

मेरे सुनियोजित प्रयासों को, जीत  - हार का भय कैसा
अपनी विवेक और ज्ञान को आत्मविश्वास से सींचकर

खुद  को पोषित करूंगा , उजाले की राह पर प्रस्थित होकर
प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थिति को भी अपने अनुकूल कर लूंगा

कटु और कठोर वाणी भी मुझे मेरे पथ से डिगा न सकेगी
दुश्चरित्र को अपनी योजना में सफल नहीं होने दूंगा

खुद के प्रयासों पर सब कुछ समर्पित करूंगा
रोशन कर कीर्ति पताका , मैं अग्रसर हो चलूँगा





अपनी साजिशों से कभी , किसी को रुलाना नहीं



अपनी साजिशों से कभी , किसी को रुलाना नहीं


अपनी साजिशों से कभी , किसी को रुलाना नहीं
किसी के आंसुओं पर , अपनी खुशियों का आशियाँ सजाना नहीं

किसी के दामन को , अपनी साजिशों से नापाक न करना
किसी को गम देकर , अपनी खुशियों का आशियाँ सजाना नहीं

किसी के आँगन का चराग, अपनी नापाक साजिशों से बुझाना नहीं
किसी के जनाजे पर , अपनी खुशियों का आशियाँ सजाना नहीं

किसी की हसरतों को , अपनी नापाक साजिशों से मिटाना नहीं
किसी के सुलगते दामन पर, अपनी खुशियों का आशियाँ सजाना नहीं

चंद सिक्के देकर , किसी की खुशियों को खरीदना नहीं
किसी को गम के पालने में सुलाकर , अपनी खुशियों का आशियाँ सजाना नहीं

नवजीवन की ओर




नवजीवन की ओर
1.    
तरु से विलग होने की व्यथा
वह बूढ़ा पीला पत्ता
बखूबी जानता है
उसे आभास भी है
अपने पुनरागमन का
अपने पुनरुद्धार का
उसे मालूम है
तरु से विलग होकर ही
वह प्रस्थित हो सकता है
नवजीवन की ओर

2.    
उपहास, परिहास से परे
इच्छा और लालसा से दूर
अभिमान , अहंकार की बेड़ियाँ तोड़ते हुए
आधि, व्याधि से मुक्त जीवन की आशा में
कर्तव्य , अकर्तव्य के प्रपंच से दूर
गर्व और गौरव जैसे तुच्छ विषयों से
स्वयं को बचाते हुए
ग्लानि, लज्जा और संकोच से नाता तोड़ते हुए
चलो चलें कहीं दूर
नवजीवन की ओर, नवजीवन की ओर

Wednesday 23 January 2019

नारी , क्या मैं सत्य नहीं हूँ ?




नारी , क्या मैं सत्य नहीं हूँ ?

मुझे खोजता मानव
मुझे समझने का
प्रयास करता मानव
इस प्रयास में
स्वयं को भूलता, भटकाता
समझ नहीं पाता
मेरे सत्य को
या यूं कहूं
समझना नहीं चाहता

वह मुझे कभी
पत्रिका के मुखपृष्ठ पर खोजता
तो कभी पत्रिका के अंतिम पृष्ठ पर
तो कभी बालकनी से टोहता
उसकी उत्सुकता उसे
बाध्य करती
कभी खजुराहो की
कलाकृति में
जीवन का सत्य ढूंढता

कितना प्यारा सत्य है
कि नारी हूँ मैं

मुझे खोजना छोड़ मानव
मेरे शरीर को सत्य समझना छोड़

मेरे प्रेम, मेरा वात्सल्य
मेरी मातृत्व छवि
मेरे दायित्वों का निर्वहन
मेरे भीतर का द्वंद्व

मेरी जीवन के प्रति लालसा
मेरा स्वयं का अस्तित्व
मेरी अभिलाषा , मेरी मंजिल
सब कुछ तो सत्य है
मेरे सपने , मेरा आसमां
सब कुछ तो सत्य है

क्या कुछ ऐसा है ?
जो मुझसे छूट गया है
या कुछ ऐसा सत्य भी है
कि बहुत कुछ छोड़ने को
मुझे बाध्य किया गया है
मैं नारी हूँ
ये एहसास बार – बार
कुरेद  - कुरेद कर
                                                                                     
गुलाब सबको पसंद है
पर उनको मसलना
न कि उसकी खुशबू से
स्वयं को , संसार को आनंदित करना

कौन से सत्य के साथ जीता मानव ?
किस सत्य की परिकल्पना के साथ ?

नारी के लिए कितने सत्य ?
कितनी अग्नि परीक्षाएं ?
क्या किसी खुशनुमा सुबह की
कल्पना करे आज की नारी ?

क्या हम उसे एक
खुला आसमां सौंप सकते हैं ?
क्यों कर हर पल सिसकती नारी ?

घर की दहलीज़ लांघते ही
एक अनजान भय के साथ
स्वयं को असुरक्षित महसूस करती
आज की नारी

आखिर किस कुंठा का
शिकार हो  रहा है
आज का मानव
उसकी अपेक्षाएं या फिर
उसकी अतिमहत्वाकांक्षाएँ
किस सत्य की ओर अग्रसर ?

इस बहकी  - बहकी सोच का
 कोई अंत भी है या
यूं ही घसीटते रहेंगे
हम अनगिनत असत्य  
या फिर आएगी कोई नई सुबह
होगी कोई नई भोर
लेकर आएगी कोई शुभ सन्देश
क्या जागेगा मानव ?
क्या नारी सत्य से भिज्ञ हो
पायेगा मानव ?
आओ चलो सजाएं
एक नई सुबह .......