जिन्दगी
का अन्तिम पड़ाव
जिन्दगी
के अंतिम पड़ाव पर
सोच रहा
वह
क्या खोया
मैंने
क्या पाया
मैंने
क्या बोया
था
क्या काटा
मैंने
क्या यह
सब मोहजाल था
या मेरे
अस्वयम के
असंयमित
प्रयास
जिसकी
परिणति ने
मुझे
झकझोर दिया है
अन्दर से
कचोट दिया है
सोचने पर
मजबूर किया है
जिन्दगी
के अंतिम पड़ाव पर
सोच रहा
वह
सोचूँ मैं
अपने बाल्यकाल को
मोहपाश
में मात – पिता के
बंधा रहा
मैं
धीरे-
धीरे चंचल होता
भूली राह
और
भटक गया
मैं
ज्ञान से
नाता
क्यों
तोड़ा मैंने
भटकी राह
खा गया
मैं धोखा
व्यस्क
हुआ तो
अनैतिक पथ
पर
हुआ
अग्रसर
धर्म –
कर्म से
नाता न था
व्यसन राह
पथ
भटक गया
मैं
मित्र
मिले और
राह भूला
मैं
मात –
पिता से नाता तोड़ा
जिन्द्गी
के अंतिम पड़ाव पर
सोच रहा
वह
तारा था
मैं
मात –
पिता की आँखों का
मैंने
सबके सपने तोड़े
मैंने
मोती माला के फैंके
दुश्चरित्र
बन जिया
धरा पर
बोझ बना
मैं जिया
समाज में
क्यों
खोया मैं
मार्ग
धर्म का
मिला न
मुझको
साथ गुरु
का
देव कृपा
क्यों हुई न मुझ पर
राह चुनी
मेरी अपनी थी
मार्ग
चुना मैंने स्वयं था
फिर देता
मुझे सहारा कौन
जिन्दगी
के अंतिम पड़ाव पर
सोच रहा
वह
अब बात
करूँ मैं
संयमित
राह की
धर्म पथ
अग्रसर होने की
अनुशासित
जीवन जीने की
बात करूँ
अब दया धर्म की
बात करूँ
अब सत्य राह की
बात करूँ
अब सफल जीवन की
बात करूँ
अब पूर्ण मानव की
बात करूँ
अब आदर्शों की
फिर क्यों
जन्मे मन में प्रश्न यह
जिन्दगी
के अंतिम पड़ाव पर
सोच रहा
वह
सोच रहा
वह
सोच रहा
वह
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