कैसा ये समाज है
कैसा
ये समाज है
मानवता
तार – तार है
बिखर
रहे आँखों के मोती
हर
आँचल भी बेजार है
कि पल
रही कुरीतियाँ
ये काम
का प्रभाव है
ये
माया का अहंकार है
विस्तृत
हुए कुविचारों के पंख हैं
शायद
ये इस काल का अंत है
हर गली
– हर मोहल्ले उसे नोचती
ये
कैसी कौरवों की भरमार है
चीख
भी आत्मा की सुनाई नहीं देती
ये
कैसा पाश्चात्य का प्रभाव है
कि
बिगड गए हैं सुर उसके
ये
कैसा रोंक संगीत का प्रभाव है
मेहमानों
पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव है
फिर
उन्हें यहाँ क्यों झेलना पड़ रहा बलात्कार है
छोटे –
छोटे बालक मन भी अब सहमे – सहमे से हैं
उनके
कोमल मन पर भी इन घटनाओं का प्रभाव है
मन
सोचने पर विवश है युग बीते क्यों
वापस
ले चलो वही द्वापर यग , वही सतयुग
उन
युगों में एक ही रावण था एक ही कंस था
आज घर –
घर गली – गली रावण बसे हैं
तभी तो
सबी कहने लगे हैं कैसा ये समाज है
मानवता
तार – तार है , मानवता तार – तार है
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