आज
के सामाजिक परिदृश्य
आज
के सामाजिक परिदृश्य ने
कुछ
अपवाद किये हैं पेश
नारी
के अपमान ने किया
घर –
घर मे है क्लेश
वास्तु
समझा जिसको मानव ने
केवल
तन समझा इस दानव ने
बलात्कार
की बलि ये चढती
पीढ़ी
दर पीढ़ी ये बिकती
कभे
दामिनी , कभी ये रेखा
किसी
ने शीतल मन न देखा
मुंह
पर कालिख पोत युवा ये
नारी
समाज पर धब्बे बनकर
नोच –
नोच कर नारी का तन
बलात्कारी
बन विचार रहे हैं
जिस
कोख से बाहर आये
उसे
ही शर्मिन्दा कर रहे हैं
नारी
घूँट पीकर रह जाती
मुंह
से वह कुछ न कह पाती
अंदर
ही अंदर वह है घुटती
शर्म
द्वार को वह है तकती
पुरुष
प्रधान समाज ने घेरा
व्यापक
क्षेत्र नारी नहीं तेरा
तुम
केवल मुझको अपनाओ
सज –
संवर तुम मुझे रिझाओ
रत
ढाले बाहों मे आओ
तन
की मेरी प्यास बुझाओ
चूक
न हो तुमसे एक पाल
सामाजिकता
मन मे हो हर पल
खुद
के बारे तुम कुछ न सोचो
घर –
परिवार मे तुम सुख खोजो
बन
जाओ मेरा आलिंगन
छोड़
मोह तुम अपना तन – मन
तुम्हें
सृजन को अपनाना है
कुरीतियों
पर मिट जाना है
नारी
तुम सीमा न तोड़ना
पुरुष
से तुम मुंह न मोड़ना
इन
विचारों ने त्रास दिया है
नारी
से समाज को दूर किया है
कहते
थे हम नारी है देवी
अब
लगती ये मुन्नी , शीला और जलेबी
कुसंस्कृति
, कुसंस्कारों के रथ पर
दौड़ता
आज का सामजिक परिवेश
सोचने
को बाध्य करता
किसकी
जवाबदारी है ये वर्तमान सामाजिक परिवेश
किसके
सर फोड़े जायेंगे ये ठीकरे
किसके
सर होगा दोष
कया
समाज के ठेकेदार
या
आज के युवा
या
पुरुष प्रधान समाज
या
वर्तमान आधुनिक नारी परिवेश
या फिर
हम सब .........................
No comments:
Post a Comment