जीने
की कला
जीने की
कला
मानव
संस्कार अर्जन की
प्रथम
सीढ़ी
जब बचपन
अपने
चरम पर हो
अठखेलियाँ
करता बचपन
रूठने –
मनाने की
कला में
निपुण बचपन
इस बात से
अनजान
बिल्कुल
नादान
इन
प्रश्नों से अनजान
कि मैं
कौन हूँ ?
मैं कहाँ
से आया हूँ ?
मैं कहाँ
जा रहा हूँ ?
मैं कर
क्या रहा हूँ ?
मेरे जीवन
का उद्देश्य क्या है ?
मेरा जन्म
किस प्रयोजन निमित्त है ?
क्या मैं
खेल – खेल में संस्कारित किया जा रहा हूँ ?
क्या मैं
चेतना के क्रमिक विकास की एक कड़ी हूँ ?
क्या मेरा
जन्म बालपन से परिपूर्ण आनंद प्रदाय हेतु हुआ है ?
क्या बचपन
के बाद की भी कोई और स्थिति हो सकती है ?
बचपन के
आनंददायक
चक्रव्यूह
में फंसा बालपन
भविष्य के
गर्त में छिपी
कालगति से
अनजान
इस
बाल्यावस्था को ही
संस्कृति
एवं संस्कारों से परिचय का
सर्वोत्तम
काल माना जाता है
उसे एहसास
कराया जाए
कि तुम इस
मानवरूपी शरीर में क्या हो
तुम्हारा
किस रूप में अस्तित्व है
शरीर या
आत्मा !
यदि आत्मा
तो निश्चित ही मैं मर नहीं सकता
यदि मर
नहीं सकता , तो इन बन्धनों का भय कैसा
मेरी
चेतना मेरे विकास की प्रक्रिया का हिस्सा है
यदि मैं
क्रमिक विकास की इस कड़ी से गुजर रहा हूँ
तो
निश्चित ही मेरे जन्म का कोई न कोई
प्रयोजन
तो निश्चित रूप से होगा
मेरा जीवन
निष्प्रयोजन नहीं हो सकता
मेरे जीवन
का प्रयास हो कि
मैं एक
जागृत चरित्र बनूँ
जिसकी
चेतना जिसका व्यक्तित्व
देदीप्यमान
सूर्य सा चमके
तथा मेरा
जीवन
प्रेम ,
मानवतापूर्ण व्यवहार व सेवाभाव से ओतप्रोत हो
मैं अपने
जीवन को
वर्तमान
से जोडूँ व वर्तमान में हो रहे कार्य कलापों
का हिस्सा
बनाऊँ
साथ ही
भविष्य के
लिए एक निश्चित मंजिल निर्धारित करूँ
मेरा
प्रयास हो कि
मेरी
इन्द्रियाँ मेरे वश में हों
मैं पूर्ण
कोशिश करूँ ताकि
मेरी
इच्छायें मेरे वश में हों
साथ ही
मैं यह भी सोचूँ
कि
वर्तमान में जो भी घटित हो रहा है
पीछे जो
भी घटित हुआ और
भविष्य
में जो भी घटित होगा
वह सब
उस
परमपूज्य परमेश्वर की अनुभूति
से हो रहा
है और
शायद
इससे
बेहतर हो ही नहीं सकता
मेरी
कोशिश हो कि
मैं अपने
पथ पर अग्रसर रहूँ
बिना किसी
दर व व्यवधान के
व्यवधान
आयें भी तो डगमगाऊं नहीं
मैं
केन्द्रित करूँ अपनी मंजिल पर अपना ध्यान
अग्रसर हो
चलूँ
पूर्व से
प्राप्त
संस्कृति
व संस्कारों को पूँजी बना लूं
पूर्वजों
की इस धरोहर को
एक से
दूसरी पीढ़ी की ओर
प्रस्थित
कर सकूं
यही मेरे
जीवन का उद्देश्य हो
यही श्रेष्ठ जीवन कला है
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