Sunday 27 September 2015

मानव होकर , जीवों की भांति - क्षणिकायें

१.


मानव होकर, जीवों की भांति
इस धरा पर, विचर रहा हूँ
कछ खोजने की चाह मैं
हैं जो एक विषम प्रश्न
मानव का सम्मान, मान
इस धरा पर
गुम सा हो गया है 
मनु मनुबम खिलौना हो गया है


२.


 काम  के प्रभाव ने
किया मानसिकता को विकृत
युवा ऊर्जा का
संत्यानाश हो रहा है

3.

खून के रिश्तों मैं
रिश्ते दिखते नहीं है

आज सब कुछ
फॉर्मल सा हो गया है

विदाई के समय आँखों मैं अश्रु
दिखते नहीं है

आज बाय - बाय   का चलन हो गया है

4.


छात्र सड़कों पर हर

अनुशासित खड़े हैं

छत्राओं के कॉलेज से बाहर आने का समय
हो गया है




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