Wednesday, 23 September 2015

इन असंवेदी पलों में

इन असंवेदी पलों में

पहला पक्ष

इन असंवेदी पलों में, आंसुओं को बह जाने दो

असामाजिकता के इस दौर में, दिल की पीर दिख जाने दो


अवसरवादिता के इस दौर में, सहृदयता बिखर जाने दो

अमानवीयता के इस दौर में, इंसानियत को तार – तार हो जाने दो


मर्यादित विचारों के अभाव में, आदर्शों को बिखर जाने दो

अंधविश्वास के इस दौर में, चमत्कार की जय हो जाने दो


आधुनिकता की परतंत्रता में , संस्कारों को खो जाने दो  

आत्मीयता के अभाव में, रिश्तों को बिखर जाने दो


नास्तिकता के इस अनैतिक व्यवहार में, मानव को मोक्ष राह से भटक जाने दो

पथभ्रष्ट होते इन चरित्रों को , मंजिल से भटक जाने दो


आधुनिक होते धार्मिक संस्कारों को, बेहतर हो विलुप्त हो जाने दो

दूर होते जा रहे सोलह संस्कारों से, बेहतर हो इन संस्कारों को भूल जाने दो


मौलिक नहीं रहीं अब विचारधारायें , आधुनिक विचारधारा में बेहतर हो सबको खो जाने दो

प्रतिउपकार की चाह में हो रहा उपकार , इस परम्परा को बेहतर हो चलते जाने दो


मूल्यों की अवहेलना कर जी रहे सब , अनैतिक आचरण को बेहतर हो धरोहर हो जाने दो

हास्यास्पद चरित्र हो रहे सब, इसी भांति बेहतर हो इन्हें मर जाने दो

दूसरा पक्ष

यूं ही जीवन ढोने की जरूरत क्या है , विचारों को मौलिक हो जाने दो

क्यूं जियें हम अमानवीय चरित्र होकर, आदर्शों की गंगा बह जाने दो



क्यूं विचारों में न्यूनता आये , आधुनिक विचारों को बिखर जाने दो

यूं ही क्यूं जियें अज्ञान के दीपक तले, ज्ञान के समंदर में सभी को डूब जाने दो



क्यूं जियें हम पथभ्रष्ट होकर, इस जीवन को संस्कारों की गंगा में डुबकी लगाने दो

 क्यूं बिखर कर रहें हम, एकता के सूत्र में हमें पिरो जाने दो 



पीर इस दिल की अब एक दूसरे को बतलाने दो , इंसानियत की खातिर दूसरों के हित मर जाने दो

जान चुके हैं हम अब इस जीवन को, मानव को अब मानव हो जाने दो






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