Thursday, 3 September 2015

चार दिन की जिन्दगी

चार दिन की जिन्दगी को यूं ही न
बेकार कर

अपनी कोशिशों से कुछ फूल
खिलाकर जाओ

चार दिन की जिन्दगी को
यूं ही न करें नापाक

चलो इंसानों की करें खिदमत
कुछ पल करें खुदा की इबादत

चार दिन की जिन्दगी को
यूं ही न बिसार तू
उत्कर्ष की राह वर
अभिनन्दन की राह वर

चार दिन की जिन्दगी
यूं ही न जाए बीत

आओ मिल करें कुछ प्रयोजन
जीवन के उत्कर्ष का

चार दिन की जिन्दगी को
यूं ही न बिसरायें हम

बन कर खिलें तारे ज़र्मी पर
यूं ही न बिखर जाएँ हम

चार दिन की जिन्दगी
यूं ही न हो जाए अभागी

चलो लक गधा गंगा को पावन करें हम
संस्कृति और संस्कारों का प्रचार करें हम

चार दिन की जिन्दगी
उपहास का पर्याय न हो जाए

अहंकार का त्याग कर
स्वाभिमान को माथे धरें हम












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