Sunday, 27 September 2015

मेरे अरमानों को उड़ान दे ऐ मेरे खुदा

मेरे अरमानों को उड़ान दे ऐ मेरे खदा

मेरे अरमानों को उड़ान दे ऐ मेरे खदा
मेरी जिन्दगी को खुशनुमा कर ऐ मैरे खुदा

मैं जहां भी देखूं, तेरा अश्क बयाँ हो ऐ मेरे खुदा 
मुझे भी इस जहां की आँखों का नूर कर ऐ मेरे खुदा

मेरे जीवन में भी उजाला भर दो ऐ मेरे खुदा
मुझे भी किसी का सहारा कर दो ऐ मेरे खुदा

मुझमे भी इंसानियत के कुछ रंग भर दो ऐ मेरे खुदा
मुझे भी चरागे - इबादत कर दो ऐ मेरे खुदा

तारीफ़ करूँ क्‍या मैं तेरी ऐ मेरे खुदा
मुझे तेरे करम का एहसास है

मेरी तकदीर तेरी इनायते - करम है
तू यहीं कहीं मेरे आसपास है ऐ मेरे खुदा










चिलचिलाती धूप में एवं अन्य क्षणिकायें

चिलचिलाती धूप में 

१. 

चिलचिलाती धूप में दोनों हाथों से
ठेले को धकेलता
बार - बार पसीना पोछता , वह आदमी 
जीवन में कामयाब होने का आभास देता है |

२. 

कुछ अधफटे वस्त्रों से , अपने अंगों को संभालती
एक अधजले हाथ को, वस्त्रों में छुपाती

अपनी व्यथा को, चेहरे पर अंकित कर
दायाँ हाथ फैला ,भीख मांगती वह लड़की

आने वाले कल को सभ्य समाज में परिवर्तित करने
का एक सफल प्रयास कर रही है

समाज में इस तरह के चरित्र दया , करुणा एवं
सामाजिकता का भाव उत्पन्न करते हैं

3. 

जिन्दगी इतनी छोटी भी नहीं
कि पलक झपकते ही
जिन्दगी की शाम हो जाए

तू, जिन्दगी का एक पल किसी के नाम कर
उसके उजड़े चमन को रोशन कर
अपनी जिन्दगी को कुछ मायने दे सकता है







Maths की किताब में छुपकर पढ़ते - क्षणिकायें

१. 

मैथ की किताब में

छुपकर पढ़ते

फन और गेम्स की किताबें

पढ़ाई से नाता बच्चों का

दूर - दूर तक खो गया है


२.

स्वाभिमान की चाह में

जी रहा मानव

अपमान के दलदल में

डूबा जा रहा है

3.

ढूंढते राहें, सफल्र हों

क्षण भर में

कहीं पर लूट, कहीं खसोट

चहँ ओर

अपराधों का मंज़र हो गया है








मानव होकर , जीवों की भांति - क्षणिकायें

१.


मानव होकर, जीवों की भांति
इस धरा पर, विचर रहा हूँ
कछ खोजने की चाह मैं
हैं जो एक विषम प्रश्न
मानव का सम्मान, मान
इस धरा पर
गुम सा हो गया है 
मनु मनुबम खिलौना हो गया है


२.


 काम  के प्रभाव ने
किया मानसिकता को विकृत
युवा ऊर्जा का
संत्यानाश हो रहा है

3.

खून के रिश्तों मैं
रिश्ते दिखते नहीं है

आज सब कुछ
फॉर्मल सा हो गया है

विदाई के समय आँखों मैं अश्रु
दिखते नहीं है

आज बाय - बाय   का चलन हो गया है

4.


छात्र सड़कों पर हर

अनुशासित खड़े हैं

छत्राओं के कॉलेज से बाहर आने का समय
हो गया है




बार में लगने लगे हैं मेले - क्षणिकायें

बार में लगने लगे हैं मेले
'डिस्को थिरकने लगे हैं
हर शहर , हर जगह
जाने कहाँ जाकर रुकेगा, यह सफ़र



बारिश की बूंदों से मिलती है राहत
तन को, मन को
उसी तरह
जिसे तरह जल की खोज में
पंक्षी विचरते हैं दो बूंदों के आचमन के लिए



मालूम नहीं इस धरा पर
क्या अच्छा किया मैंने
इसी  कोशिश में कर्मपूर्ण जीवन
जिया जा रहा हूँ मैं

पाकीज़गी जिन्दगी के हर लम्हे में

पाकीजगी जिन्दगी के
हर लम्हे मैं , हर आरज़ू मैं
पैदा कर
कुछ ऐसा कर
दुनिया पाकीजगी का
समंदर हो जाए



मामता हूँ कारवाँ रुकते नहीं
किसी के लिए ज़माने मैं
पर मैं वो हूँ
जिसने कारवाँ को दो पल रुक
विश्राम कर
आगे बढ़ने की और मंजिल छूने की
ओर मुखातिब करने की जुर्रत की है



पालता हे
खशियों के पल
जिगर के साए तले
कहीं कोई मुसाफिर
आ जाए हे
तो दो घड़ी , खुशियों की छाँव तले
विश्राम कर सके



मैं अपने वर्तमान को संवारने में
लगा हूँ चूंकि
यही वर्तमान कल आने वाले
भविष्य का
वर्तमान और केवल वर्तमान होगा

जी रहा हूँ वीरानियों में

जी रहा हूँ मैं
वीरानियों मैं
कुछ इस विचार से
बदलेंगे सितारे मेरी किस्मत के
बस अब, अभी , अगले ही पल



जिन्दगी की राह के काँटों ने
मुझे पत्थरों पर चलना सिखा दिया
इसी उम्मीद से जी रहा हूँ )
कभी तो फूलों पर सैर का मौका मिलेगा.



संकल्पों की राह भी 
बड़ी बेमानी होती है
अभी किया , कि अगले पत्र छोड़ा
योग का ले तू. आसरा
संकल्प को तू. प्राण दे



माना कि दुःख के राही
सब, मगर
बाहों का दे सहारा
दूर कर तू पीर सबकी
अपनी जिन्दगी को नई राह दे




आदमियत के एहसास से क्यों घबरा रहे हैं लोग

आदमियत के एहसास से  क्यों घबरा रहे हैं लोग

आदमियत के एहसास से क्यों घबरा रहे हैं लोग

इस धरती को छोड़ , आसमां पर घर क्यों बना रहे हैं 

लोग


स्वयं से स्वयं को परिचित क्यों नहीं कर रहे हैं लोग

धरती को छोड़ आसमां को जन्नत बनाने की क्यों 

सोच  रहे हैं लोग


पत्र – पत्रिकाएं पढ़ समय क्यों गंवा रहे हैं लोग

बेकार की ख़बरों में खुदको क्यों उलझा रहे हैं लोग



पढ़ते नहीं धर्म, संस्कृति , संस्कार और आदर्शों की 

बातें

बेकार यूं ही खुद को बहला रहे हैं लोग



इशारा खुदा का समझते नहीं हैं लोग

उम्मीद यूं ही दिल में जगाये हुए हैं लोग


उस खुदा की आरज़ू करते नहीं हैं लोग

मन ही मन खुद को बहलाए हुए हैं लोग



औकात में अपनी क्यों रहते नहीं हैं लोग

कद्र अपनी क्यों करते नहीं हैं लोग


कुदरत के क़ानून को क्यों समझते नहीं हैं लोग


खुदा की इबादत क्यों करते नहीं हैं लोग 

हँसना भूल गया है मानव

हँसना भूल गया है मानव

हंसना भूल गया है मानव

इस दुखी संसार में

जिन्दगी की उलझन में उलझा, डूब रहा

 मझधार में

बेरोजगारी का तमगा, लटके युवा गलहार

 में

हँसना भूल गया है मानव

अपराधों की हो रही पौं बारह

रक्षकों के दरबार में

हँसना भूल गया है मानव

महत्वाकांक्षी होना , पड़ रहा है भारी

भटक रही है धन के लोभ में दुनिया इस

 संसार में

हँसना भूल गया है मानव

कवि है भूल गया कविता ,समय के इस

 बहाव में

वक़्त काटता हर मानव

जीवन के गलियार में

हँसना भूल गया है मानव

पाप घटें, पुण्य बढ़ें तब  , मानवता सर

 चढ़ बोले जब

संस्कार हो जाएँ पावन , जब सब हों

 संस्कृति के अवतार में

हँसना भूल गया है मानव

जब रोतों को हंसाये कोई , जब गिरतों 

को उठाये कोई

तब हंसना सीखेगा मानव , इस जीवन 

के गलियार में

हँसना भूल गया है मानव






पूछ लो तुम इस ज़मीं से, पूछ लो तुम आसमाँ से

पूछ लो तुम इस ज़मीं से

पूछ लो तुम इस ज़मीं से , पूछ लो तुम 

 आसमाँ से

क्या जलाई ज्योत तुमने , क्या निभाया फ़र्ज़ 

तुमने

मातु धरा के भरोसे का , क़त्ल क्या किया 

न तुमने

पूछ लो तुम इस ज़मीं से , पूछ लो तुम 

 आसमाँ से

संकल्प लिया क्या तुमने , इस धरा की 

पावनता का

संस्कारों को तुमने सींचा क्या, पुण्य किया 

संस्कृति को तुमने

पूछ लो तुम इस ज़मीं से , पूछ लो तुम 

 आसमाँ से

सत्य मार्ग को छोड़ा तुमने, आधुकिनता से 

खुद को जोड़ा तुमने

चरण तेरे मंदिर न पड़ते , मदिरालय से 

नाता जोड़ा तुमने

पूछ लो तुम इस ज़मीं से , पूछ लो तुम  

आसमाँ से

संयम से तुम काम न लेते , निर्बल को 

सताया तुमने

शोभनीय न हुए काम तुम्हारे, अविवेक को 

अपनाया तुमने

पूछ लो तुम इस ज़मीं से , पूछ लो तुम  

आसमाँ से

सामाजिकता अब रही न तुममे , दोषों को 

अपनाया तुमने

प्रभु पर रहा न तुमको भरोसा , नास्तिकता 

को चाहा तुमने

पूछ लो तुम इस ज़मीं से , पूछ लो तुम  

आसमाँ से

उत्कर्ष राह तुमको न भाई , अपयश कर्म 

किये सब तुमने

ऋणी हो गए इस धरती के, प्रकृति को न 

अपनाया तुमने

पूछ लो तुम इस ज़मीं से , पूछ लो तुम  

आसमाँ से

आधीन हुए तुम विलासिता के, संस्कार न 

अपनाए तुमने

आध्यात्म से तुमको क्या लेना, जीवन को 

नरक बनाया तुमने

पूछ लो तुम इस ज़मीं से , पूछ लो तुम 

 आसमाँ से

अन्धकार के तुम हो साथी, आदर्शों को न 

अपनाया तुमने

चमत्कार को नमस्कार कर, अंधविश्वास 

बढ़ाया तुमने

पूछ लो तुम इस ज़मीं से , पूछ लो तुम 

 आसमाँ से

अभिमानी हो विचर रहे तुम, आदर किसी का 

किया न तुमने

उत्कृष्ट कर्म कभी हुए न तेरे, सदबुद्धि को न 

अपनाया तुमने

पूछ लो तुम इस ज़मीं से , पूछ लो तुम  

आसमाँ से

अब तो जागो हे मानव तुम, सत्कर्म राह 

अपनाओ

पुण्य करो अपने जीवन को, मोक्ष राह को 

पाओ