Wednesday, 4 February 2015

जहां से रुखसती को लेकर , संगदिल हुए तो क्या

जहां से रुखसती को लेकर , संगदिल हुए तो क्या

जहां से रुखसती को लेकर , संगदिल हुए तो क्या
चार कन्धों पे बैठकर इस जहां से ,रुखसत हुए तो क्या

ये दुनिया संग्दिलों से ,भरी हो भी तो क्या
दो चार इंसानियत के तलबगार ,मिल भी जाएँ तो क्या

हमारी किस्मत में दो चार फूल ,न हों तो भी क्या
हमसे किसी की जिन्दगी रोशन ,हो भी जाए तो क्या

नेकी की राह पर चलने वालों का ,टोटा हो तो भी क्या
बेपरवाह , बेगैरत लोगों का जमावड़ा ,हो भी जाए तो क्या

दो चार गीत , ग़ज़ल हम ,लिख जाएँ भी तो क्या
हमारी गजलों से किसी के गम ,कम हो जाएँ भी तो क्या

जन्दगी हमारी पाकीजगी का आइना ,हो भी जाए तो क्या
हम पर उस खुदा का करम ,हो जाए तो भी क्या

उस नाजनीन पर गर हम ,मर मिटे भी तो क्या
उसने वफ़ा न निभाई मुहब्बत में ,तो भी क्या

गर हम चाँद तोड़ कर ज़मीन पर ,न ला सके तो भी क्या
चाँद गर खुद ज़मीन पर उतर आये ,तो भी क्या

बिन पंखों के गर मैं आसमान पर उड़ सकूं ,तो भी क्या
गर मैं आसमान पर उड़ न पाऊँ ,तो भी क्या

चंद सिक्के मेरी जेब में भी ,आ जाएँ तो क्या
सिक्कों बगैर भी मैं ,जी सकूं तो क्या

खिताबों से जो मुझे न नवाजा ,गया तो क्या
बगैर खिताबों के भी जिन्दगी ,कट रही तो क्या

मुझको कोई अपना न समझे ,तो भी क्या
किसी ने गर मुझको अपना बना लिया ,तो भी क्या

जहां से रुखसती को लेकर , संगदिल हुए भी तो क्या
चार कन्धों पे बैठकर इस जहां से रुखसत हुए भी तो क्या


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