Sunday, 8 February 2015

चली रे चली कैसी हवा ये चली

चली रे चली कैसी हवा ये चली

चली रे चली कैसी हवा ये चली
बांध रही साँसों की डोर को
टूट रहे रिश्ते सभी , छूट रहे बंधन सभी
खींच रही रिश्तों की डोर को

चली रे चली कैसी हवा ये चली
बांध रही साँसों की डोर को

पीहर की गलियाँ पुकारें मुझे आ जाओ
माँ की सजल आँखें , पिता की दिल की पीर
खींच रही जंजीरों की डोर को

चली रे चली कैसी हवा ये चली
बांध रही साँसों की डोर को

चाहत की नदिया में ,तैर न पाऊँ मैं
समाज की परवाह किये ,छोड़ रही दिल की चाहत 
 संभाल रही इज्ज़त की डोर को

चली रे चली कैसी हवा ये चली
बांध रही साँसों की डोर को

मैली हुई गंगा में ,डुबकी लगाऊं कैसे
पापनाशिनी गंगा को ,मैं ये बताऊँ कैसे
खींच रही आस्था की डोर को

चली रे चली कैसी हवा ये चली
बांध रही साँसों की डोर को

साथी न साथी रहे , रिश्ते सब पराये हुए
पुकारूं तो पुकारूं किसे , इस दुःख की घड़ी में
खींच रही जीवन की डोर को

चली रे चली कैसी हवा ये चली
बांध रही साँसों की डोर को

जिन्हें समझा था अपने, वो सभी निकले पराये
जिन्हें पूजा था मैंने , वो निकले बेगाने
खींच रही सामाजिकता की डोर को

चली रे चली कैसी हवा ये चली
बांध रही साँसों की डोर को

प्रयासों में मेरे कोई कमी नहीं है
फिर क्यों प्रयास मेरे सभी हो रहे हैं विफल
खींच रही कर्म की डोर को  

चली रे चली कैसी हवा ये चली
बांध रही साँसों की डोर को

हर पल इबादत करती , उस खुदा को याद करती
बदले सितारे न नसीब के
खींच रही आस्था की डोर को

चली रे चली कैसी हवा ये चली
बांध रही साँसों की डोर को


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