Tuesday 24 February 2015

उसकी निर्दोष आँखों से झांकता बचपन



उसकी निर्दोष आँखों से झांकता बचपन


उसकी निर्दोष आँखों से झांकता बचपन
उससे प्रश्न करता

"क्या यही है जीवन"


बालपन के नज़ारे
बालपन की अठखेलियाँ
रूठने मनाने का दौर
चंचलतापूर्ण व्यवहार


नखरों के अंबार
चीजों का बाज़ार
खिलौनों का संसार
अजब खेलों का संसार


खेलने और खाने का त्यौहार
यौवन की दहलीज पर खड़ी
उसकी सपनों से सजी
आँखों ने प्रश्न किया


"क्या यही है जीवन "


आँखों में यौवन का जोश
आकर्षण का विषम दौर
इच्छाओं और कामनाओं की कामपूर्ण अभिलाषा


मन में उठता प्रश्नों का दौर
शारीरिक आकर्षण का दौर
कुछ कर गुजरने की ललक
स्वयं को ही पूर्ण कहने का चलन


स्वयं को स्थापित करने का दौर
जीवन के अर्थ को समझने की चाह


वृद्धावस्था की दहलीज पर खड़ा
वही व्यक्ति
अपने सजल नेत्रों से स्वयं से वही प्रश्न कर रहा


"क्या यही था जीवन "

जीवन के मर्म को समझने की इस अवस्था में
उसने स्वयं ही इस प्रश्न को अमान्य कर दिया


जीवन की उपब्धियों व अनुपलब्धियों के बीच
कसता जीवन


मानव के मानव होने का
एहसास भी नहीं होने देता
स्वयं की जय में लीन मानव
जीवन की जय के बोध से अनजान


जीवन की आवश्यकताओं के
ज्वार भाटे में
डूबता उतरता मानव
आशा निराशा के झूले में
हिलोरें खाता मानव

उन्नति अवनति की डोर में बंधा मानव

आस्तिकता नास्तिकता के भंवर में
स्वयं को ढूँढता मानव

क्या यही अँधेरा कुआं
जीवन का सच

कहीं ऐसा तो नहीं
कुछ छोड़ दिया मैंने

काश मैंने वैसा किया होता
तो अच्छा होता

काश मैंने स्वयं पर नियंत्रण रखा होता
तो अच्छा होता


काश मैं जीवन के मर्म को समझ पाता
तो अच्छा होता

काश मेरा भी एक गुरु होता
जो राह दिखाता
मार्ग प्रशस्त करता


क्या सामाजिक बंधन ही जीवन का सच
या इससे परे भी बहुत कुछ
कुछ मैंने बोया भी था या
केवल काटने की चाह


जीवन के अंतिम क्षणों में
स्वयं से प्रश्न कर रहा मानव
"क्या यही था जीवन "
"क्या यही था जीवन "
"क्या यही था जीवन "


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