Monday, 19 January 2015

खुशी कहाँ हो तुम



खुशी कहाँ हो तुम 

 
खुशी कहाँ हो तुम , कहाँ है ठिकाना तेरा 
 
क्या तुम बसती हो , उस माँ में नयनों में 
 
जो लोरियां सुनाते समय , नवजात की 

मुस्कान से नेत्रों में झलकती है 
 
खुशी कहाँ हो तुम , कहाँ है ठिकाना तेरा 
 
क्या तुम बसती हो , उस छोटे से बालक के 

ह्रदय में जो माँ के आँचल का आलिंगन पाकर 

प्रसन्न हो उठता है  
 
खुशी कहाँ हो तुम , कहाँ है ठिकाना तेरा 
 
क्या तुम्हारा रेन बसेरा है , किसी गरीब का

 ह्रदय स्थल 
 
जो दो वक़्त का भोजन पाकर खिल उठता है 
 
खुशी कहाँ हो तुम , कहाँ है ठिकाना तेरा 
 
कहीं ऐसा तो नहीं , तुम हो उस प्रियतमा के 

साथ 
 
जो रोज़ पर अपने प्रियतम से मिलन की आस 

अपने मन में संजोये है
 
खुशी कहाँ हो तुम , कहाँ है ठिकाना तेरा 
 
संवेदना रहित मानव का तुझसे नाता 
 
आज के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कहीं स्पर्श करता

 हुआ भी दिखाई नहीं देता 
 
खुशी का अर्थ भी आज समझ से परे हो गया है

खुशी क्या विलासिता में ही सिमट कर रह गयी

 है
आध्यात्म खुली बाहों से उस भागते मानव को

 खुशी देने के लिए बेताब है 
 
व्यक्ति का व्यक्ति से जुड़ाव स्वयं को अँधेरे कुँए

 में महसूस कर रहा है 
 
इंसानियत की राह , मानवता स्वयं के अस्तित्व

 पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं 
 
सामाजिकता , नैतिकता, प्रेम , प्यार, भक्ति

 , आध्यात्म , संवेदना सभी एक ही प्रश्न कर 

रहे हैं 
 
खुशी कहाँ हो तुम , शायद हमारे साथ 
 
या मानव ह्रदय से कोसों दूर


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