दुर्लभ हुईं सात्विक विचारों की श्रृंखला
सामान्य हुईं सात्विक विचारों भयावहता
नज़र अब नहीं आतीं संवेदना और भावुकता
लज्जित कर रही काम पूर्ण मानसिकता
अस्तित्व को टटोलते संस्कृति व संस्कार
दिखाई नहीं देती अब विचारों की मौलिकता
हो रहे सभी चरित्र हास्यास्पद
टटोलते एक दूसरे के भीतर की सहृदयता
क्यों झेल रहे हैं हम आदर्शों की नाटकीयता
कब तक रोएगी अपने अस्तित्व पर आस्तिकता
दिन – दूनी , रात – चौगुनी विकसित होतीं विचारों की कुटिलता
सामाजिकता में ढूँढता हर एक चरित्र अवसरवादिता
कैसी है ये रिश्तों को ढोने की अनिवार्यता
स्वाधीन होकर भी ढो रहे आधुनिक विचारों की पराधीनता
कैसा ये बहाव , कैसी ये दुर्बलता
कैसा ये गंवारूपन , कैसी ये राष्ट्रीयता
हम न रहे मर्यादित , न मन में पल रही भावुकता
न विचारों की अनुकूलता , न सादगी में एकरूपता
दुर्लभ हुई सात्विक विचारों की श्रृंखला
सामान्य हुईं सात्विक विचारों भयावहता ||
अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
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