Sunday, 2 February 2014

पग – पग पर कांटें

पग – पग पर कांटें

पग – पग पर कांटें
क्यूँ बिखरे

न तुम जानो 
न मैं जानूं

पग – पग पर रोड़े
क्यूँ बिखरे

न तुम जानो
न मैं जानूं

ये माया नगरी
कैसी है

न तुम जानो
न मैं जानूं

गिरता मानव
हर – पल , हर - क्षण

न तुम जानो
न मैं जानूं

धरा खोती
दिशा – दिशा

तारों की चाल
बदलती सी

ऐसा लगता क्यूँ

न तुम जानो
न मैं जानूं

मानव है
चालों में उलझा

मानव है
जालों में उलझा

ऐसा है क्यूँ

न तुम जानो
न मैं जानूं

एक पागलपन
एक जूनून सा है

हर ज़र्रा – ज़र्रा
गुमसुम सा है

ऐसा होता है क्यूँ

न तुम जानो
न मैं जानूं

गिर जाये
जब कोई तो

संभालने वाला
मिलता नहीं है यहाँ

ऐसे लोग यहाँ पर क्यूँ हैं

न तुम जानो
न मैं जानूं

पाना खोना
है रीत यहाँ

कोई किसी का
है न मीत यहाँ

केवल रोना
और केवल रोना

हर एक की है
तकदीर यहाँ

ये सब होता ही क्यूँ है

न तुम जानो
न मैं जानूं


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