कुछ ले दे के साब
( व्यंग्य )
( इस व्यंग्य का किसी व्यक्ति
विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं है अगर ऐसा होता है तो उसे मात्र संयोग समझा जाए )
द्वारा
अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
“कुछ ले दे के साब “ हमारे देश की यह एक असांस्कृतिक परम्परा अब एक
सांस्कृतिक परम्परा के रूप में अपनी जड़ें जमा चुकी है | “कुछ ले दे के साब “ एक
नारा नहीं है | यह मुसीबत से बचने का एक नायाब तरीका है जो सदियों से भारत देश की
पावन भूमि पर पनपता और पलता रहा है | इस विचार को अब संस्कृति के विस्तार के एक
अंग के रूप में देखा जाता है | “कुछ ले दे के साब “ जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र
में एक मन से और पूर्ण एकता के साथ अपना लिया गया है | यह अब हमारे जीवन के
प्रत्येक क्षेत्र में एकमत से अंगीकार कर लिया गया है | एक बात और बता दूं आपको ,
इसके शिकार होने वालों में गरीब जनता और माध्यम वर्ग के लोग विशेष रूप से शामिल
हैं | चूंकि उच्च स्तर के वर्ग के लोगों को राजनीतिक संरक्षण की वजह से बचने का
अवसर प्राप्त हो ही जाता है | इसका अर्थ यह नहीं कि उनके राजनीतिक रिश्ते प्रगाढ़
हैं अपितु वे अपने द्वारा पार्टी को दिए गए चंदे को समय – असमय भुनाते रहते हैं |
ये रिश्ते अप्रत्यक्ष रूप से पनपते हैं जो
काफी बड़ी – बड़ी डीलों से गुजरकर पूरा होता
है | कहीं पेट्रोल पंप खोलना हो, कोई नया उद्योग लगाना हो , कहीं मल्टी स्टार
होटल बनाना हो , गाड़ी का लाइसेंस बनवाना हो, सरकारी जमीन हथियाना हो, सड़क निर्माण
का ठेका लेना हो, एअरपोर्ट ठेके पर लेना
हो या फिर इसी तरह का कोई और बड़ा काम
करवाना हो तो उसके लिए आपको तो पता ही है “ कुछ ले दे के साब “ कहना है और हो गया
आपका काम |
जीवन के हर कदम पर , हर स्तर पर हम देखते हैं कि “ कुछ ले दे के साब “ यह
जुमला या कहें तो डायलाग याद करके ही घर से निकलना होता है | जिन्हें यह डायलाग
याद नहीं होता वो बेचारे एक दो बार तो चालान के रास्ते से गुजर लेंगे किन्तु तीसरी
बार उन्हें भी यह “ कुछ ले दे के साब “डायलाग याद हो ही जाता है | आपको एक मित्र
के जीवन का एक संस्मरण सुना रहा हूँ | हरियाणा से हमारा मित्र कार पर सपरिवार सवार
होकर हिमाचल के लिए प्रस्थान करता है | रात के दो बजे हैं सुनसान सड़क पर दूर - दूर
तक कोई नहीं | इसी बात का फायदा उठाने की कोशिश में वे एक पीली बत्ती वाले चौक को
पार कर आगे बढ़ते हैं | थोड़ी ही दूर पर पेड़ों की झुरमुट से दो वर्दीधारी अचानक से प्रकट
होते हैं और पीली बत्ती क्रॉस करने को लेकर चालान काटने का नाटक करते हैं | हमारा
मित्र भी कुछ कम समझदार नहीं है | वह स्थिति को भांप लेता है और ज्यादा समय न
बर्बाद करते हुए वह सीधी भाषा में कह देता है “ कुछ ले दे के साब “ | बात पांच सौ
में पक्की होती है दोस्त जेब में रखे 100 - 100 के चार नोट की पुंगड़ी बनाकर
वर्दीधारी को पकड़ा गिनने का मौका भी नहीं देता है और 100 की गति से वहां से निकल
लेता है | इसे कहते है समझदारी |
मुझे अपना भी एक
संस्मरण याद आ रहा है | बात यह है कि मैं अपनी धर्मपत्नी से साथ डॉक्टर से मिलकर
लौट रहा था रास्ते में मुझे सड़क क्रॉस कर आर टी ओ ऑफिस जाना था | किसी के कहने पर
मैंने बीच से एक रास्ते से होकर आर टी ओ ऑफिस तक पहुँचने की सोची | किन्तु कैसे ही
मैंने बीच का रास्ता क्रॉस किया एक वर्दीधारी मेरी मोटर साइकिल के सामने प्रकट हो
गया और कहने लगा कि जनाब आप गलत रास्ते पर आ गए हैं चालान कटेगा | सो मामला “ कुछ
ले दे के साब “ पर आकर टिक गया | बात तीन सौ रुपये पर आकर सिमट गयी और हम अपने
गंतव्य की ओर बढ़ चले | इसी तरह आप सभी के जीवन के कुछ न कुछ संस्मरण अवश्य ही
होंगे जहां “ कुछ ले दे के साब “ वाली स्थिति पैदा हुई होगी और मामला “ कुछ ले दे
के साब “ पर आकर ही सलटा होगा | जब से नया यातायात कानून लागू हुआ है तब से
वर्दीधारियों की चाँदी न कहते हुए कहना चाहूंगा कि उनकी तो डायमंड हो गयी है अब
500 से नीचे बात बनती ही नहीं | हमारे
पहचान की एक महिला बता रही थीं कि उनके साथ भी ऐसी ही “ कुछ ले दे के साब “ वाली
घटना हुई | मामला तो निपट गया पर उन्होंने उस वर्दीधारी से पूछा भैया आप महीने में
कितना निकाल लेते हो | बीस हजार तो हो ही जाता होगा | वर्दीधारी का जवाब उसे भीतर
तक हिला गया जब उसने कहा कि आप किस दुनिया में हैं यहाँ तो महीने का टारगेट दो लाख
से कम नहीं होता |
अभी पीछे
एक घटना ने सबको हिला दिया था जब एक व्यक्ति के संस्कार के समय अचानक पूरी की पूरी
छत लोगों के सिर पर गिर गयी और करीब 25 लोगों का वहीँ संस्कार कर दिया गया | जांच
हुई तो पता चला कि “ कुछ ले दे के साब “
के माध्यम से ही छत का निर्माण हुआ था | यह भी सत्य सामने आया कि अधिकारी को 28
प्रतिशत दिया गया था | अब आप ही सोचिये इस देश का क्या होगा जब ...............|
“ कुछ ले दे के साब
“ यह विषय केवल एक या दो विभागों की धरोहर होकर नहीं रह गया है यह स्लोगन चरितार्थ रूप में आर टी ओ
, तहसील, जिला मुख्यालय, मकानों की रजिस्ट्री , प्रॉपर्टी खरीद, शिक्षा, फिल्म जगत
या यूं कहें तो मुझे नहीं लगता ऐसा जीवन
का कोई ऐसा क्षेत्र बचा हो जहां “ कुछ ले
दे के साब “ ने घुसपैठ न की हो | हमारे देश में अभी कुछ अतिविचित्र मामले देखने
में आये जब एक शिक्षिक ने तीन स्कूल से तनख्वाह निकाली और फुलटूस मस्ती की | फर्जी
अंकसूची के जरिये एक व्यक्ति ने 16 साल नौकरी कर ली और लाखों कमा लिए | अब सरकार
कैसे उससे लाखों की राशि वसूलेगी यह तो सरकार ही ..........|
किसी भी
स्तर पर सरकारी कर्मचारी का ट्रान्सफर एक मुख्य साधन है आय को बढ़ाने का | कर्मचारियों को उनके गृहनगर से दूर कही
पोस्टिंग कर दो बाद में वही व्यक्ति अपने गृहनगर के आसपास आने के लिए “ कुछ ले दे
के साब “ वाली भाषा में अपना काम निपटाने की कोशिश करेगा | एक सत्य घटना आपसे साझा
कर रहा हूँ किसी एक कर्मचारी ने अपने गृहनगर के लिए सरकारी पोर्टल पर एक विशिष्ट
व्यक्ति के मान से ग्रिएवांस डाली किन्तु जवाब में उसे उस स्टेशन पर तीन साल के
लिए रहने को कहा गया जबकि उसी के साथ का एक कर्मचारी जो तीन महीने पहले ही उस
संस्था में ट्रान्सफर पर आया था चौथे महीने ही वह अपने गृहनगर वापस पहुँच जाता है
इस घटना को आप कैसे देखते हैं इसे आप खुद ही देख लीजिये |
सरकारी
विभागों के बाबू इस “ कुछ ले दे के साब “ वाली परम्परा का भरपूर लाभ उठाते हैं |
चाय – चढ़ावा के बिना बिल पास होते ही नहीं | हमारे देश में किसी को ड्राइविंग न भी
आती हो पर उसके नाम से बिना टेस्ट पास किये भी लाइसेंस बन जाता है | आपकी अपनी
फोटो पर दूसरे के नाम से आधार कार्ड भी बन जाता है | आप चाहें तो दूसरे के नाम से
लोन भी ले सकते हैं और न चुकाने की स्थिति में विदेश में उस देश में जाकर रह सकते
हैं जिनके साथ हमारी प्रत्यर्पण संधि नहीं है | इसके अलावा आप एक प्रयास और भी कर
सकते हैं कि आप अपने दिवालियापन का दुखड़ा राजनीतिक अखाड़े में सुनाते रहिये हो सकता
है कि आपको भी कोई बड़ा सा पैकेज मिल जाए उसमे से जितना बड़े साहब कहें उतना पीछे के
रास्ते से भिजवा दीजिये |
“
कुछ ले दे के साब “ आज हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन गया है | नेताओं की
गाड़ी भी “ कुछ ले दे के साब “ की पटरी पर से
ही होकर गुजरती है | एक मुख्य बात
जो मैं आपको बताना भूल गया कि हर बार ऐसा नहीं होता | कभी – कभी ईमानदार अधिकारी
या वर्दीधारी पल्ले पड़ता है तब स्थिति भयावह हो जाती है | तब आपका “ कुछ ले दे के साब “ वाला नारा भी
काम नहीं आता | इस स्थिति में अच्छा हो कि
आप चालान कटवा लें और वहां से खिसक लें | क्योंकि ऐसे अधिकारी या वर्दीधारी से बहस
करना मतलब अपने चालान की राशि को कई गुना कर लेना होता है |
आज स्थिति यह
है कि एक चाय वाला भी वर्दीधारी को जब बिना
पैसे की चाय नहीं पिलाता है तो उसका चाय का टपरा अगले ही दिन उस जगह से नदारत हो जाता
है | इसीलिए आप “ कुछ ले दे के साब “ वाले इस स्लोगन को अपने चिंतन द्वार पर
स्थापित किये रहिये और एक खुशहाल जीवन
जीने की ओर अग्रसर होते रहिये |
मेरी
शुभकामनाएँ आपके साथ हैं .....................|
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