Sunday, 30 November 2014

दुर्लभ हुईं सात्विक विचारों की श्रृंखला


दुर्लभ हुईं सात्विक विचारों की श्रृंखला 
 
दुर्लभ हुईं सात्विक विचारों की श्रृंखला
सामान्य हुईं सात्विक विचारों भयावहता 
 
नज़र अब नहीं आतीं संवेदना और भावुकता
लज्जित कर रही काम पूर्ण मानसिकता 
 
अस्तित्व को टटोलते संस्कृति व संस्कार
दिखाई नहीं देती अब विचारों की मौलिकता 
 
हो रहे सभी चरित्र हास्यास्पद
टटोलते एक दुसरे के भीतर की सहृदयता 
 
क्यों झेल रहे हम आदर्शों की नाटकीयता
कब तक रोएगी अपने अस्तित्व पर आस्तिकता 
 
दिन – दूनी , रात – चौगुनी विकसित होतीं विचारों की कुटिलता
सामाजिकता में ढूँढता हर एक चरित्र अवसरवादिता 
 
कैसी है ये रिश्तों को ढोने की अनिवार्यता
स्वाधीन होकर भी ढो रहे आधुनिक विचारों की पराधीनता 
 
कैसा येबहाव , कैसी ये दुर्बलता
कैसा ये गंवारूपन , कैसी ये राष्ट्रीयता 
 
हम न रहे मर्यादित , न मन में पल रही भावुकता
न विचारों की अनुकूलता , न सादगी में एकरूपता 
 
दुर्लभ हुई सात्विक विचारों की श्रृंखला
सामान्य हुईं सात्विक विचारों भयावहता




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