हमने
देखा है हिमालय को टूटते
हमने
देखा है हिमालय को टूटते
सुनी
है उसकी अन्तरात्मा की टीस
स्वयं
के अस्तित्व को टटोलता
मानव
मन को टोहता
सहज
अनुभूतियों के झिलमिलाते रंग
फीके पड़ते
एक
नई सहर की दास्ताँ लिए
समय
के साथ संवाद करता
कहीं
दूर आशा की किरण के साथ
फिर
से पंखों पर उड़ने को बेताब
हमने
देखा है हिमालय को टूटते
अस्तित्व
खोता विशाल बरगद जिस तरह
अंतिम
पड़ाव पर स्वयं के जीवन के
मानव
मन की भयावह तस्वीर पर
चीख
– चीखकर पूछ रहा हिमालय
हे
मानव तुम कब जागोगे
क्या
मैं जब मिट जाऊंगा ,
तब
जागोगे
प्रकृति
से ही जन्मा मानव
स्वयं
को प्रकृति से भिन्न
समझने
की
स्वयं
की इच्छाओं से बंधा मानव
स्वयं
की इच्छाओं के अनियंत्रित
प्रमाद में
प्रकृति
को रौंदता अविराम
प्रकृति
ने हम शिशुपालों को
सदियों
किया माफ़
अंत
समय जब पाप का घड़ा भरा
मानव
अपने अस्तित्व को तरसता
स्वयं
के द्वारा मर्यादाओं की टीस
झेलता
हिमालय
,
बर्फ्र
रहित बेजान पत्थरों – पहाड़ियों
का
समूह न होकर
प्रकृति
निकल पड़ी है तलाश में
स्वयं
के अस्तित्व को गर्त में जाने
से बचाने
चिंचित
है प्रकृति ,
हिमालय
के अस्तित्व को लेकर
हिमालय
कहीं खो गया है
महाकवि
कालिदास की रचना
ऋतुसंहार
से उपजी हिमालय की अद्भुत गाथा
कालिदास
कृत कुमार संभव में हुआ हिमालय
का गुणगान
विविधताओं
से परिपूर्ण हिमालय
भारत
का ह्रदय ,
भारत
का जीवनदाता ,
पालनहार
हिमालय
पर्यावरण
संरक्षण रुपी संस्कृति वा
संस्कारों की बाट
जोहता हिमालय
स्वयम
के अस्तित्व को मानव अस्तित्व
से जोड़कर
देखता हिमालय
बार
– बार यही चिंतन करता
क्या
जागेगा मानव और जागेगा तो कब
क्या
मानव मेरे अस्तित्व हित स्वयं
के हित का प्रयास
करेगा
और
यदि ऐसा नहीं हुआ तो
हिमालय
और मानव किस गति को प्राप्त
होंगे
क्या
इसके प्रतिफल स्वरूप होगा
एक
सभ्यता का विनाश
एक
सभ्यता का विनाश
एक
सभ्यता का विनाश
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