Sunday, 30 November 2014

हमने देखा है हिमालय को टूटते


हमने देखा है हिमालय को टूटते 
 
हमने देखा है हिमालय को टूटते 
 
सुनी है उसकी अन्तरात्मा की टीस 
 
स्वयं के अस्तित्व को टटोलता 
 
 मानव मन को टोहता 
 
सहज अनुभूतियों के झिलमिलाते रंग फीके पड़ते 
 
एक नई सहर की दास्ताँ लिए 
 
समय के साथ संवाद करता 
 
कहीं दूर आशा की किरण के साथ 
 
फिर से पंखों पर उड़ने को बेताब 
 
 हमने देखा है हिमालय को टूटते 
 
अस्तित्व खोता विशाल बरगद जिस तरह 
 
अंतिम पड़ाव पर स्वयं के जीवन के 
 
मानव मन की भयावह तस्वीर पर 
 
चीख – चीखकर पूछ रहा हिमालय 
 
हे मानव तुम कब जागोगे 
 
क्या मैं जब मिट जाऊंगा , तब जागोगे 
 
प्रकृति से ही जन्मा मानव 
 
स्वयं को प्रकृति से भिन्न 
 
समझने की 
 
स्वयं की इच्छाओं से बंधा मानव 
 
स्वयं की इच्छाओं के अनियंत्रित प्रमाद में 
 
प्रकृति को रौंदता अविराम 
 
प्रकृति ने हम शिशुपालों को 
 
सदियों किया माफ़ 
 
अंत समय जब पाप का घड़ा भरा 
 
मानव अपने अस्तित्व को तरसता 
 
स्वयं के द्वारा मर्यादाओं की टीस झेलता 
 
हिमालय , बर्फ्र रहित बेजान पत्थरों – पहाड़ियों का 

समूह न होकर 
 
 प्रकृति निकल पड़ी है तलाश में 
 
स्वयं के अस्तित्व को गर्त में जाने से बचाने 
 
चिंचित है प्रकृति , हिमालय के अस्तित्व को लेकर 
 
हिमालय कहीं खो गया है 
 
महाकवि कालिदास की रचना 
 
ऋतुसंहार से उपजी हिमालय की अद्भुत गाथा 
 
कालिदास कृत कुमार संभव में हुआ हिमालय का गुणगान
 
विविधताओं से परिपूर्ण हिमालय 
 
भारत का ह्रदय , भारत का जीवनदाता , पालनहार 

हिमालय 
 
पर्यावरण संरक्षण रुपी संस्कृति वा संस्कारों की बाट

 जोहता हिमालय 
 
स्वयम के अस्तित्व को मानव अस्तित्व से जोड़कर 

देखता हिमालय
 
बार – बार यही चिंतन करता 
 
 क्या जागेगा मानव और जागेगा तो कब 
 
क्या मानव मेरे अस्तित्व हित स्वयं के हित का प्रयास 

करेगा
 
और यदि ऐसा नहीं हुआ तो 
 
हिमालय और मानव किस गति को प्राप्त होंगे 
 
क्या इसके प्रतिफल स्वरूप होगा 
 
एक सभ्यता का विनाश 
 
एक सभ्यता का विनाश 
 
एक सभ्यता का विनाश


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