Sunday, 11 September 2016

कौन कहता है



कौन कहता है

कौन कहता है जिन्दगी अब सिसकती साँसों का हो गयी है नाम
वक़्त के समंदर में कोशिशों की नाव चलाकर तो देख

कौन कहता है होठों से , अब खो गयी है मुस्कान
गुलशन में खुशबुओं से भरपूर , दो फूल खिलाकर तो देख

कौन कहता है जिन्दगी अनजाने डर का हो गयी है समंदर
अपने आसपास के चरित्रों से , एक बार खुशनुमा रिश्ता बनाकर तो देख

कौन कहता है जिन्दगी की शाम अब ढलने को है
अपने प्रयासों से किसी की अँधेरी जिन्दगी में उजाला करके तो देख

कौन कहता है रिश्तों में अब वो पहले की सी बात नहीं
खुद को किसी अनाथ की जिन्दगी का हिस्सा बना के तो देख

 कौन कहता है जिन्दगी अवसरवादिता का होकर रह गयी है पर्याय
चंद पल इंसानियत की राह पर निसार करके तो देख

कौन कहता है गुलशन में अब वो पहले सी बहार रही
इसी गुलशन में , चंद फूल कोमल मुस्कान के खिलाकर तो देख

कौन कहता है आज का मानव वो पहले सा मानव रहा
चंद कदम मानवता की राह पर बढ़ाकर तो देख

कौन कहता है खुशनुमा पलों के अभाव में गुजर रही है जिन्दगी
किसी पालने के शिशु की मुस्कराहट को एक बार निहार के तो देख

कौन कहता है जिन्दगी स्वयं के अस्तित्व को लेकर है परेशां
जिन्दगी के कुछ पल आध्यात्मिकता पर लुटाकर तो देख









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