सत्कर्म से खुद को क्यों भटका रहे हो
सत्कर्म से खुद को ,कयों भटका रहे हो
दूसरों के बहकावे में,क्यों आ रहे हो
सत्कर्म का सिला , सत्कर्म होता
क्यों खुद को यूं , बहला रहे हो
दूसरे के मौन को , अपना मौन क्यों करते
पर उपकार से क्यों , घबरा रहे हो
पर पीड़ा को , खुद की पीड़ा समझो
उपकार से क्यों जी , चुरा रहे हो
रिश्तों की मर्यादा से , रिश्ता निभाओ
रिश्तों पर अविश्वास , क्यों दिखा रहे हो
संदेह की परिकल्पना से , बाहर आओ
खुद पर अविश्वास , क्यों जगा रहे हो
उत्साह को जीवन का , अंग कर लो
क्यों सिसक-- सिसक , आंसू बहा रहे हो
'विलाप को क्यों कर लिया , जीवन का अंग तुमने
खुद को उत्साही क्यों नहीं , बना रहे हो
संवेदनहीन क्यों , विचर रहे तुम
क्यों खुद को अभिमानी , बना रहे हो
शालीनता तुम्हें क्यों , रास नहीं आती
घृणा के सागर में , क्यों डुबकी लगा रहे हो
जी रहे क्यों अपराध बोध के साथ , जगत में
इंसानियत से रिश्ता , क्यों नहीं बना रहे हो
खुदा की राह तुमको , क्यों नहीं भाती
स्वयं को क्यों तुम भरमा रहे हो
स्वयं को तुम क्यों , संयमित नहीं करते
लालसाओं में क्यों , फंसते जा रहे हो
स्वयं के उत्कर्ष से तुम्हें , मोह नहीं क्यों
अभिनन्दन की राह से खुद को , क्यों भटका रहे हो
धार्मिक कार्यों को क्यों नहीं कर लेते , अपनी जिंदगी का मकसद
माया -- मोह में खुद को क्यों , उलझा रहे हो
स्वयं की ही परेशानियों में , हो क्यों उलझे तुम
दूसरों के ग़मों से नाता क्यों नहीं , बना रहे हो
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