हर एक मानव भटक रहा है
हर एक मानव भटक रहा है
जीवन सुख को तरस रहा है
धन वैभव की राह मैं उलझा
जाने ऐसा क्यों कर रहा है
कभी तो हौती तन की पीड़ा
कभी तो होती मन की पीड़ा
गिरता उठता , फिर से गिरता
जीव सच को तरस रहा है
शॉर्टकट की राह पर चलता
सच की राह से भटक रहा है
क्या है जन्नत ये न जाने
जाने क्यों ये डोल रहा है
सच को झूठ झूठ को सच
जाने ऐसा क्यों ये बोल रहा है
'बहका--बहका जीवन इसका
खुद को ये कहाँ खोज रहा है
खुद पर है विश्वास नहीं
रिश्तों पर एतबार नहीं
सच और झूठ के तराजू में
जाने क्यों ये डोल रहा है
फरेब से भरी दुनिया में
सहमा--सहमा सा क्यों लगा रहा है
नफरत के दलदल मैं फंसता
जीवन धन को तरस रहा है
मुक्ति की इसे राह न सूझे
माया--मोह में उलझ रहा है
संयम इसे रास न आये
मुग तृष्णा में उलझ रहा है
मन धीरज धारण नहीं करता.
इधर-उधर मन डोल रहा है
मोक्ष इसे रास नहीं आता
तन की तृष्णा में भटक रहा है.
हर एक मानव भटक रहा है
जीवन सुख को तरस रहा है
धन वैभव की राह मैं उलझा
जाने ऐसा क्यों कर रहा है
No comments:
Post a Comment