Thursday, 7 July 2016

ये कैसी अजब दास्ताँ है - (ग़ज़ल)

ये कैसी अजब दास्तां है

ये कैसी अजब दास्तोँ है , हर शख्स लग रहा परेशां है
किसी को सुनाएँ क्‍या, दर्द-- ए --दिल अपना , अजब मुश्किलों का ये
कैसा समां है

चेहरे दिल की पीर का गवाह बन बैठे , हर एक सांस परेशां-परेशां है
किया था अपने अरमानों को अमानत अपनी , ये कैसा दौर , ये कैसी हवा है

चाँद--सितारे भी मेरी राह का हमसफ़र न हो सके , सूझता जिंदगी का
आगाज नहीं
आब--ए--आइना में उल्झी-उलझी जिंदगी , करें तो खुद को करें आज़ाद
कैसे

आहिस्ता-आहिस्ता खुद को संभालने की है कोशिश मेरी , समझ नहीं
आता मेरा खुदा मुझसे रूठा-रूठा क्यों है
खुद को कहते हैं हम सब अल्लाह के बन्दे , सहमा--सहमा सा हर शख्स ,
आखिर ये माजरा क्या है

ये कैसी अजब दास्ताँ है , हर शख्स लग रहा परेशां है
किसी को सुनाएँ क्या, दर्द-ऐ--दिल अपना , अजब मुश्किलों का ये कैसा
समां है




1 comment:

  1. बहुत अच्छा अंदाज़ है आपका गुप्ता जी | इसी तरह लिखते रहिये |

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