Tuesday 18 April 2017

आरज़ू थी मेरी एवं चंद नए एहसास

आरज़ू थी मेरी ,एक चाँद मुझको शी हो मसीब
मालूम ना था मुझको, चौंद़ के शहर में रेशन होगा.
आशियाँ मेरा


किताबों से दोस्ती, क्या गुल स्विलाएँगी जिन्दगी मैं मेरी,

मुझको मालूम न था 

इस बेजान शहर में ; पुस्तकें मेरी हमसफ़र बनकर कर
रहीं मुझको रोशन


किसी के इंतज़ार में , अपनी जिन्दगी को यूं नासूर न कर
कसी गमदीदा से पिता वन्य, उसके आशियाँ को सेशन
कर 


पाकीज़मी जिन्दगी का नूर हो. लिखर जाए तो अच्छा की
पाकीज़गी आखों में , दिल में उस खुदा की तस्वीर बावस्ता 
हो जाए तो अच्छा हो 
जहां से भी गुजरूँ , तेरे एहसास से रोशन ये गुलिस्तां हो 
जाए तो अच्छा हो   



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