Monday, 16 April 2018



वक्त के दोराहे पर खड़ा आदमी 


वक्त के दोराहे पर खड़ा आदमी , कुछ असमंजस में 
वक्त की ये नाइंसाफी , मुझसे देखी नहीं जाती 

क्यों कर तरसते दो वक्त की रोटी , को कुछ लोग 
बड़े घरों में हो रही , अन्न की बेकद्री मुझसे सही नहीं जाती 

लोगों को गिराकर आगे बढ़ने की, चल पड़ी है होड़ 
यूं इंसानों के हाथ इंसान की होती बेइज्जती , मुझसे सही नहीं जाती 

बेच दिया है ईमान उन्होंने, एक अदद कुर्सी के लिए 
यूं अपने ही लोगों के हाथ , देश की दुर्गति होते देखि नहीं जाती 

लालसा और अहम् की अंधी दौड़ में , अपनों को ही पराया करते लोग 
यूं अपनों के द्वारा , रिश्तों की बेकद्री मुझसे सही नहीं जाती 

चीरहरण की घटनाओं ने , उम्र की सीमा को पीछे छोड़ा 
यूं हो रही, शीलभंग की घटनाओं की त्रासदी मुझसे सही नहीं जाती 

वक्त के दोराहे पर खड़ा आदमी , कुछ असमंजस में 
वक्त की ये नाइंसाफी , मुझसे देखी नहीं जाती 






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