Sunday, 13 March 2016

सागर की उफनती लहरों

सागर की उफनती लहरों

सागर सी उफनती लहरों से जूझती जिन्दगी
की ,मानिंद जी रहे हैं हम
सागर की लहरों के थपेड़ों के , किनारे क्यों न हुए हम

पल--पल सिसकती साँसों का साथ लिए कटती
जिन्दगी
किसी के चहरे की मुस्कराहट क्यों न हुए हम

खुशियों के समंदर में डूबने को तरसती जिन्दगी
फूलों की सी महकती खुशबुओं का समंदर क्यों न हुए
हम

माँ के आँचल को तरसती नन्ही  परी की वो बेबस
मुस्कान
उन नन्ही सी परियों की बेबस जिन्दगी की मुस्कान
क्यों न हुए हम

स्झि में, अनजान राहों में भटक रहे हैं हम
किसी की मंजिल की राहों का निशाँ क्यों न हुए हम

दो वक़्त की रोटी जिनके नसीब का हिस्सा न हुई
भूख से बिलखते इन चरित्रों की रोजी--रोटी का सहारा
क्यों न हुए हम

चीरहरण का हिस्सा होता बचपन और आज की नारी
कृष्ण, राम, नानक, बुदूध की तरह आदर्शपूर्ण
व्यक्तित्व बन क्यों न खिले हम

अपने सुनहरे भविष्य को लेकर चिंचित आज की युवा
पीढ़ी
इस भ्रमित व चिंचित युवा पीढ़ी के मार्गदर्शक क्यों न
हुए हम



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