Thursday, 15 October 2015

चंद रातों से आई मुझको नींद नहीं

चंद रातों से आई मुझको नींद नहीं

चंद रातों से आई मुझको नींद नहीं
लगता है बरसों से हुई उनसे मुलाक़ात नहीं
लम्हा लम्हा उसके दीदार की आरजू है लिए
बेकरारी का ये आलम उनको आया रास नहीं

किताबों को बनाया था जरिया भेजने को खत
जाने हुआ क्‍या ख़त का जवाब आया नहीं
बफ़ा की आरज़ू त्िए जी रहा हूँ मैं
उन्हें मेरा अंदाज़े मुहब्बत रास आया नहीं

उन्हें मुझसे वफ़ा की आरज़ू कोई खता की बात नहीं
मुहब्बत के दुश्मनों को हमारा प्यार आया रास नहीं
मेरी आरज़ू थी उनकी रातों को कहूं अपना
समाज के ठेकेदारों को हमारा साथ आया नहीं

वो समझते थे मुहब्बत को पैसे वालों का शगल
हम मुहब्बत के चाहने वालों का दुनिया को आया ख्यात्र नहीं
जीते जी न मिल सके तो मात को किया सजदा
हमारी मुहब्बत की इस सलामी पर हुआ किसी को नाज़ नहीं


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