Tuesday, 8 November 2016

जिन्दगी यूं ही क्यों . गुमनामी के निशाँ हो जाए

जिन्दगी यूं ही क्यों , गुमनामी के निशाँ हो जाए

जिन्दगी यूं ही क्यों ,गुमनामी के निशों हो जाये
क्यों न हम मन में ,आशा और उल्लास के दीपक जलाएं

जिन्दगी यूं ही क्यों ,तिरस्कार के समंदर में खो जाए
क्यों न हम स्वाभिमान को ,अपने उत्कर्ष का हमसफ़र बनाएं

जिन्दगी यूं ही क्यों ,अंतहीन सफ़र की मुसाफिर हो जाए
क्यों न हम अपने प्रयासों में ,समर्पण की रौशनी जगाएं

जिन्दगी यूं ही क्‍यों ,अर्थहीन प्यास का समंदर हो जाए
क्यों न हम जिन्दगी में ,शालीनता को अपना हमसफ़र बनाएं

जिन्दगी यूं ही क्‍यों ,गुमसुम सी अँधेर में खो जाए
क्यों न हम आशा का दीपक जला ,इसे रोशन बनाएं

जिन्दगी यूं हे क्‍यों संसार की ,माया-मोह में खोकर रह जाए
क्यों न हम इबादत को अपनी ,मुक्ति का ज़रिया बनाएं

जिन्दगी यूं ही क्यों ,खुदगर्जी के समंदर में खो जाए
क्यों न हम रिश्तों की ,एक खुशनुमा महफ़िल सजाएं

जिन्दगी यूं ही क्‍यों ,निराशा के बवंडर में खो जाए.
क्यों न हम सशा के बादलों से सजा ,एक आसमां बनायें

जिन्दगी यूं ही क्यों ,गुमनामी के निशों हो जाये
क्यों न हम मन में ,आशा और उल्लास के दीपक जलाएं

जिन्दगी यूं ही क्यों ,तिरस्कार के समंदर में खो जाए
क्यों न हम स्वाभिमान को ,अपने उत्कर्ष का हमसफ़र बनाएं



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