गैरों की क्या बात करें
अपने ही हुए पराये बैठे हैं
कल तक जो बातें करते थे
आज मुंह फुलाए बैठे हैं
हमें देख कभी जो मुस्काते थे
आज मुंह घुमाए बैठे हैं
पीड़ा में जिनकी हम सहभागी थे
वो आज हमारी पीड़ा बन बैठे हैं
जिनके गम में हम साये थे
हमारे ग़मों का समंदर बन बैठे हैं
जिनके सुख – दुःख के हम भागी थे
वे ही दुःख का अम्बर बन बैठे हैं
जिनके लिए हम कल – कल करती सलिला थे
वे ही हमारे जीवन में दलदल का सागर सजा बैठे हैं
उनकी पीर को हम अपनी पीर समझते हैं
हमारी खुशियों पर नज़र गड़ाकर बैठे हैं
किसको समझाएं , कैसे समझाएं
अपने ही पराये हुए बैठे हैं
ऊपर मन से हमें वो अपना कहते
भीतर ही भीतर घात लगाए बैठे हैं
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