बेख़याल
बेख़याल बेअसर
किंचित
विक्षिप्त
लग रहा है वो
चला जा रहा है
अपनी ही दुनिया
में
लोगों के दिलों
में जगाता
केवल एक ही भाव
शायद पागल है ये
सत्य के आईने
में
झाँकने के कोई
तैयार नहीं
कोई उसे बड्डा
पागल कहता है
तो कोई उसे
झुमरू पागल
की संज्ञा दे
आगे बढ़ जाता है
कभी कभी उसके
तन पर अधफटे
वस्त्रों
को देख अर्धनग्न
देख उसके तन को
ढंकने
कहीं न कहीं
मन में एक कचोट
का अनुभव कर
उसे
वस्त्राभूषित करने का प्रयास करता है
कभी कभी वह
अचानक ही
रौद्र हो उठता
है
पत्थर उठा किसी
की भी ओर दौड़ता है
पर पत्थर फैंककर
मारता नहीं
कभी अचानक ही
जोर जोर से
दहाड़ता है चीखता
है
कभी सिसकता है
व्यथा के पीछे
का सत्य
सबसे दूर कहीं
भूतकाल के गर्त
में छुपा
समाज में छुपे
अमानवीय भेड़ियों
का शिकार
जिसे हम बड्डा
पागल
कह आगे बढ़ जाते
हैं
एक बात और
कभी कभी तो
रक्षकों द्वारा
ही
भक्षक बन
इन चरित्रों का
निर्माण किया
जाता है
उन्हें पैदा
किया जाता है
हमारा सामाजिक
परिवेश
हमारी क़ानून
व्यवस्था,
न्यायपालिका , प्रशासन में
कुछ न कुछ तो
ऐसा है
जो शक्ति , धन
से संपन्न
समाज में
व्याप्त
चरित्रों को
विशेष महत्त्व देता है
अर्थहीन समाज
में
कोई जगह न होने
पर ऐसे चरित्रों
का निर्माण होता
है
जिन्हें हम पागल
झुमरू कहते हैं
हमारा दायित्व
मानव समाज में
फैलती असमानता
को समाप्त कर
नैतिकतापूर्ण वातावरण
का निर्माण करना
होगा
जो इन विक्षिप्त
किरदारों से
पट रही धरा को
इस भयावह
त्रासदी से
बचा सके
यहाँ न कोई
बड्डा हो
न ही कोई झुमरू
यहाँ केवल मानव
हो
उसका मानवपूर्ण
व्यवहार हो
शालीनता हो
सुन्दरता हो
संस्कार हों संस्कृति हो
यही मानव समाज
की पुकार हो
यही मानव समाज
की पुकार हो
यही मानव समाज
की पुकार हो
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