बहुत से नज़ारे थे मेरे आशियाने में
बहुत से नज़ारे थे मेरे आशियाने में
मैं यूं ही भटकता रहा ज़माने में |
मुझे एहसास ही न था अपनी खुशियों का
मैं यूं ही उन्हें ढूंढता रहा वीराने में |
खुदा के करम, उसकी रहमत को मैं समझ सा सका
मैं यूं ही गिले - शिकवे करता रहा उसके इबादतखाने में |
उसकी मुस्कराहट को मैं मुहब्बत समझ बैठा
उनसे रूवरू हुआ मैं किसी और के आशियाने में |
मेरी जिन्दगी का इख्तियार उस खुदा के हक में था
मैं खुद को यूं ही ढूंढता रहा जिन्दगी के मैखाने में |
मेरे अपनों ने दिया मुझे सुकून बहुत
अपनों को तलाशता रहा मैं अनजानों में |
अपने अं में डूबा रहा वो जिन्दगी भर
बरसों लगे उसे खुद को मनाने में |
चंद खुशियाँ क्या नसीब हुईं वो खुद को समझ बैठे खुदा
एक वक़्त ऐसा भी आया जब उसे खुद को पाया वीराने में |
बहुत से नज़ारे थे मेरे आशियाने में
मैं यूं ही भटकता रहा ज़माने में |
मुझे एहसास ही न था अपनी खुशियों का
मैं यूं ही उन्हें ढूंढता रहा वीराने में ||
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