Monday, 20 March 2017

बहुत से नज़ारे थे मेरे आशियाने में


बहुत से नज़ारे थे मेरे आशियाने में

बहुत से नज़ारे थे मेरे आशियाने में
मैं यूं ही भटकता रहा ज़माने में |

मुझे एहसास ही न था अपनी खुशियों का
मैं यूं ही उन्हें ढूंढता  रहा वीराने में |
 
खुदा के करम, उसकी रहमत को मैं समझ सा सका
मैं यूं ही गिले - शिकवे करता रहा उसके इबादतखाने में |

उसकी मुस्कराहट को मैं मुहब्बत समझ बैठा
उनसे रूवरू हुआ मैं किसी और के आशियाने में |

मेरी जिन्दगी का इख्तियार उस खुदा के हक में था
मैं खुद को यूं ही ढूंढता रहा जिन्दगी के मैखाने में |

मेरे अपनों ने दिया मुझे सुकून बहुत
अपनों को तलाशता रहा मैं अनजानों में |

अपने अं में डूबा रहा वो जिन्दगी भर
बरसों लगे उसे खुद को मनाने में |

चंद खुशियाँ क्या नसीब  हुईं वो खुद को समझ बैठे खुदा
एक वक़्त ऐसा भी आया जब उसे खुद को पाया वीराने में |

बहुत से नज़ारे थे मेरे आशियाने में
मैं यूं ही भटकता रहा ज़माने में |

मुझे एहसास ही न था अपनी खुशियों का
मैं यूं ही उन्हें ढूंढता  रहा वीराने में ||







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