Wednesday, 11 March 2015

हे मानव , कैसी ये दुनिया तेरी

हे मानव , कैसी ये दुनिया तेरी

पत्थर की सूरत को
तुम समझ रहे भगवान
जीते जागते मानव को
समझो न तुम इंसान

हे मानव ,कैसी ये दुनिया तेरी
कहने को इंसान

बीच समंदर जो उतराए
उसको न कभी तू बचाये
नूर देख तो करे आरती 
तू कैसा इंसान

हे मानव ,कैसी ये दुनिया तेरी
कहने को इंसान

गिरते जो बीच राह में
मिलता नहीं सहारा
उठे हुओं को और उठाये
ये कैसा इन्साफ

हे मानव ,कैसी ये दुनिया तेरी
कहने को इंसान

पावन थी जो गंगा अपनी
उसको भी न बख्शा
कामधेनु को माँ कहता तू
पूत कहाँ का सच्चा

हे मानव ,कैसी ये दुनिया तेरी
कहने को इंसान

चीरहरण हो रहे आये दिन
नारी , मुक्ति की बात जोहती
युवा पीढ़ी के विचारों को
लगा ये कैसा ग्रहण

हे मानव ,कैसी ये दुनिया तेरी
कहने को इंसान

अभिवादन को तू न पूजे
अभिनन्दन की राह न खोजे
अनुकम्पा से नाता जोड़े
कैसा ये आधुनिकता का प्रभाव

हे मानव ,कैसी ये दुनिया तेरी
कहने को इंसान

अहंकार की झूठी शान दिखाए
परिहास को तू अपनाए
पछतावा तुझको न होता
बीज किस तरह के तू बोता

हे मानव ,कैसी ये दुनिया तेरी
कहने को इंसान

दुनिया दुखिया तेरे कारण
दुष्चरित्र बने दुःख का कारण
पीर पराई भूल चुका तू
कैसे हो तेरा नाम

हे मानव ,कैसी ये दुनिया तेरी
कहने को इंसान

कुरीतियों में तू है उलझा
सत्मार्ग तुझे नहीं सूझा
मूल्यों की तुझे परख नहीं
कब सीखेगा नैतिकता का ज्ञान

हे मानव ,कैसी ये दुनिया तेरी
कहने को इंसान

कुसंस्कार बने धरोहर
करते बड़ों का सभी निरादर
स्वाभाविक विचार नहीं तेरा
करता सब कुछ मेरा – मेरा

हे मानव ,कैसी ये दुनिया तेरी
कहने को इंसान

आरोपों में दुनिया उलझी
बात नहीं कोई है सुलझी
उत्कर्ष तेरा नहीं है संभव
सब कुछ लगता असंभव

हे मानव ,कैसी ये दुनिया तेरी

कहने को इंसान 

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