तुम न छेड़ो कोई बात
तुम न छेड़ो कोई बात
न सुनाओ आदर्शों का राग
मार्ग हुए अब अनैतिक
हर सांस अब है कांपती
कि मैं डरूं कि वो डरे
हर मोड़ अब डरा – डरा
कांपते बदन सभी
कांपती हर आत्मा
रिश्ते सभी हुए विफल
आँखों में भरा वहशीपन
हर एक आँख घूरती
आँखों की शर्म खो रही
बालपन न बालपन रहा
जवानी बुढापे में झांकती
आदर्श अब आदर्श न रहे
न मानवता मानवता रही
अब राहों की न मंजिलें रहीं
डगमगाते सभी पाँव हैं
रिश्तों की न परवाह है
संस्कृति का न बहाव है
संस्कारों की बात व्यर्थ है
नारी न अब समर्थ है
नर , पशु सा व्यर्थ जी रहा
व्यर्थ साँसों को खींच है रहा
कहीं तो अंत हो भला
कहीं तो अब विश्राम हो
कहीं तो अब विश्राम हो
कहीं तो अब विश्राम हो
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