धरती माँ
धरती माँ तुम पावन थीं
धरती माँ तुम निश्चल थीं
रूप रंग था सुन्दर पावन
नदियाँ झरने बहते थे कल – कल
मोहक पावन यौवन था तेरा
मन्दाकिनी पावन थी सखी तुम्हारी
बहती थी निर्मल मलहारी
इन्द्रपुरी सा था बसता था जीवन
राकेश ज्योत्स्ना बरसाता था
रूप तेरा लगता था पावन
रत्नाकर था तिलक तुम्हारा
मेघ बने स्नान तुम्हारा
पंक्षी पशु सभी मस्त थे
पाकर तेरा निर्मल आँचल
राम कृष्ण बने साक्ष्य तुम्हारे
पैर पड़े जिनके थे न्यारे
चहुँ और जीवन जीवन था
मानव – मानव सा जीता था
कोमल स्पर्श से तुमने पाला
मानिंद स्वर्ग थी छवि तुम्हारी
आज धरा क्यों डोल रही है
अस्तित्व को अपने तोल रही है
पावन गंगा रही न पावन
धरती रूप न रहा सुहावन
अम्बर ओले बरसाता है
सागर सुनामी लाता है
नदियों में अब रहा न जीवन
पुष्कर अस्तित्व को रोते हर क्षण
मानव है मानवता खोता
संस्कार दूर अन्धकार में सोता
संस्कृति अब राह भटकती
देवालयों में अब कुकर्म होता
चाल धरा की बदल रही है
अस्तित्व को अपने लड़ रही है
आओ हम मिल प्रण करें अब
मातु धरा को स्वर्ग बनायें
इस पर नवजीवन बिखरायें
प्रदूषण से रक्षा करें इसकी
इस पर पावन वृक्ष लगायें
हरियाली बने इसका गहना
पावन हो जाए कोना कोना
न रहे बाढ़ न कोई सुनामी
धरती माँ की अमर कहानी
धरती माँ की अमर कहानी
No comments:
Post a Comment