Monday, 21 October 2013

कोरा कागज़

कोरा कागज़

कोरा कागज़ हाथ में लिए
कविता लिखने
बैठते ही
मैं विचारों में
खो सोचने लगा

कहाँ से शुरू करूँ

सोचा राजनीति
पर लिखूं
मन मसोस कर
रह गया मैं

आज के अपराधपूर्ण
राजनैतिक
परिवेश जहां
क्षण – क्षण
अपराध
राजनीति पर
हावी हो रहा है

मैंने सोचा
विषय बदलना ही उचित है

आज की वर्तमान शिक्षा पद्दति
पर ही कुछ लिखूं

फिर से
कलम ने साथ न दिया
आज की पेशेवर शिक्षा प्रणाली
जो किपैसा कमाने का
जरिया बनकर रह गयी है

मध्यमवर्ग , निम्नवर्ग
की पहुँच के बाहर हो गयी है
ऐसी वर्तमान शिक्षा प्रणाली
पर लिखने को मन न हुआ

चिंतन की दिशा बदली
सोचा आज के सामाजिक परिवेश
पर ही कुछ पंक्तियाँ लिखूं

पर ऐसा संभव न हुआ
टूटते परिवार ,
बिखरते संस्कृति और संस्कार ,
होता अलगाव , दहेज प्रथा , नारी व्यथा ,
अतिमहत्वाकांक्षी आशा , रुलाती निराशा ,
साम्प्रदायिकता एवं – एवं ने
मुझे कविता लिखने से रोक दिया

मन की विवशता व लिखने
की चाह ने मुझे
फिर से नए विषय पर
सोचने व लिखने को प्रेरित किया

सोचा विश्व समुदाय पर
आधारित कोई कविता रचूँ

पर विश्व स्तर पर
बढते आतंकवाद का सामना
कर रहे
विश्व समाज ,भूमंडलीकरण
के सपने को देते आगाज ,
ग्लोबल वार्मिंग की
मानव पर पड़ रही मार

क्षेत्रीय आतंकवाद
से सुलगता सारा यह संसार
सारी दुनिया झेल रही
महंगाई की मार

इन सारी समस्याओं ने
विश्व को चिंताओं के
उस तिराहे पर लाकर खड़ा
कर दिया है

जहां से आगे सत्मार्ग
ढूंढ पाना
मुश्किल ही नहीं
असंभव सा है

मैंने सोचा
अच्छा हो कि मैं
अपनी कलम को
विश्राम दूं
अपनी चिंतन शक्ति
को आराम दूं
किसी नए करिश्मे के
होने तक .................







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