Wednesday, 18 August 2021

 तरक्की का कैसा ये मंज़र सजा है

 

तरक्की का कैसा ये , मंज़र सजा है

संस्कारों से मानव , हुआ जुदा है

 

भाग - दौड़ की संस्कृति , हुई विकसित

अपना ही अपनों से हुआ जुदा है

 

अहम् की कैसी ये , बिछी है बिसात

मानव का मानव पर से , भरोसा उठा है

 

चीरहरण ने पार करी , हदें सारी

अपना ही अपनों को ,  नोचने में भिड़ा है

 

ऊंची  - ऊंची बिल्डिंगों से , सजते शहर हैं

दिल आदमी का , संकुचित हुआ है

 

कूड़े के ढेर पर , नन्हा तन देखो

कुँवारी माओं का दिल , पत्थर हुआ है

 

 

एक  - दूसरे को गिराने का , चलन कैसा

आदमी ही आदमी का , दुश्मन हुआ है

 

धर्म पर लहराता , राजनीति का परचम

आज धर्म राजनीति का , मोहरा हुआ है

 

तरक्की का कैसा ये , मंज़र सजा है

संस्कारों से मानव , हुआ जुदा है

 

भाग - दौड़ की संस्कृति , हुई विकसित

अपना ही अपनों से हुआ जुदा है

 

 

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