Monday, 18 March 2019

अपनों के बीच रहकर भी तनहा हूँ मैं न जाने क्यूं


अपनों के बीच रहकर भी तनहा हूँ मैं न जाने क्यूं

अपनों के बीच रहकर भी तनहा हूँ मैं ,न जाने क्यूं
खुशबू के समंदर में भी रहकर खुशबू से अनजान हूँ मैं ,न जाने क्यूं

पर कुतर दिए मेरे, मेरे मेरे अपनों ने ही , न जाने क्यूं
चाहकर भी मुस्कुरा नहीं पाता , ये एहसास , न जाने क्यूं

मेरी कलम मेरे विचारों का साथ नहीं दे रही , न जाने क्यूं
खूबसूरत चेहरों पर भी एक अजीब सा खौफ है, न जाने क्यूं

संस्कृति, संस्कारों को तिलांजलि दे रही आज की युवा पीढ़ी , न जाने क्यूं
एक ही छत के नीचे रहकर भी एक दूसरे से वो अनजान हैं, न जाने क्यूं

रिश्तों में खिंच रही एक अदृश्य दीवार , न जाने क्यूं
सी रहे हैं होंठ सौ झूठ छुपाने को , न जाने क्यूं

भीगी  - भीगी पलकों का साथ लिए वो जी रहे , न जाने क्यूं
ग़मगीन हो रही हर एक शाम , कोई दिलासा देता , नहीं है क्यूं

किसी की आह पर कोई आंसू बहाता नहीं , न जाने क्यूं
कोई चाहकर भी किसी को पास बिठाता नहीं , न जाने क्यूं

किसी गिरते हुए को कोई उठाता नहीं , न जाने क्यूं
कोई चाहकर भी किसी को अपना बनाता नहीं  , न जाने क्यूं



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