'एक अदद चाँद की ख्वाहिश लिए (ग़ज़ल)
'एक अदद चाँद की ख्वाहिश लिए जी रहा हूँ मैं , यूं ही नहीं
कोशिशों के समंदर में पल - पल खुद को डुबो रहा हूँ मैं,यूंही
नहीं
आरज़ू उस चाँद को ज़मीं पर लाने की कर रहा हूँ मैं , यूं ही नहीं
हर एक आशियाँ, हर एक आँगन हो रोशन , ये आरज़ू , यूं ही नहीं
खुदा के हर एक बन्दे में, उस खुदा के दीदार की आरज़ू, यूं ही
नहीं
हर एक शख्स को तू फ़रिश्ता कर मेरे मौला, मेरी ये इबादत, यूं
ही नहीं
सी सकूं ज़ख्म औरों के , उनके ग़मों को अपना कर लूं , ये
आरज़ू, यूं ही नहीं
हर एक इन्साफ पसंद के दर पर रोशन हो एक चाँद, ये आरज़ू
यूं ही नहीं
पालता हूँ अपने सीने में ज़ख्म, औरों के , यूं ही नहीं
अपने आंसुओं से सींच रहा हूँ मैं अपनी कलम को , यूं ही नहीं
'एक अदद खुले आसमां की चाहत मेरी, ये आरज़ू, यूं ही नहीं
नन्हे लबों पर एक नन्ही सी मुस्कान ला सकूं , ये आरज़ू: यूं ही
नहीं
बिताये थे अभावों में जिन्दगी के वो पल, यूं ही नहीं
अपने प्रयासों , अपनी कोशिशों को अपने संघर्ष के लहू सींच रहा
हूँ. यूं ही नहीं
अपनी हर एक सांस से इस गुलशन को रोशन करने की आरज़ू,
यूं ही नहीं
चार कदम, किसी राही का हमसफ़र हो सकूं ये आरज़ू . यूं ही
नहीं
'किसी के लबों पर गीत या ग़ज़ल बन रोशन हो जाऊं ये एहसास,
यूं ही नहीं
“उस” जहां में भी “अंजुम ” उस खुदा के दर का चराग हो रोशन
होने की आरज़ू, यूं ही नहीं
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