Monday 4 December 2017

मैं मुस्करा कर ही (ग़ज़ल)

मैं मुस्कुरा कर ही (ग़ज़ल)

मैं मुस्कुरा कर ही , काम चला लेता  हूँ
बड़ी - बड़ी खुशियों को , आम बना लेता हूँ

क्यों उत्सवों मैं , हम समय गंवाएं अपना
मैं रोगों के चेहरे पर मुस्कान लाकर ही , काम चला लेता हूँ

क्यों हम खुद को अहं के , समंदर में डुबोएं 
मैं खास मौंकों को आम बनाकर ही , काम चला लेता हूँ

'गमों के समंदर में भी , खुद को संभाल लेता हूँ
जिन्दगी के हर दौर को , खुदा की मर्जी मान काम चला लेता हूँ

क्यों गिले शिकवों में उलझ  कर , रह जाती है ये दुनिया
हर एक शख्स को खुदा का बन्दा समझ , मैं रिश्ते बना लेता हूँ

आज के इस दौर के गीतों में वो दर्द कहाँ
उस दौर को याद करके ही , अपने गम  भुला  लेता हूँ

अजब सी घुटन है , आज के माहौल में 
कहीं दूर नदी के तीर को , अपना साहिल बना लेता हूँ

'किस किसको सौचूँ, और किसको , भूल्र जाऊं मैं
अपनी कलम को ही अपने ग़मों में , हमसफ़र बना लेता हूँ




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