Tuesday, 18 March 2014

वजूद


वजूद
एक रात चांदनी ने
मुस्कुराकर चाँद से पूछा
तुम्हारा वजूद तो
सूरज की रोशनी है
जो तुम्हें रोशन करती है ,
तुम्हें खूबसूरत बनाती है,
तुम तो स्वयं सुन्दर नहीं अपितु
सूर्य की किरणों का आचमन कर
स्वयं को प्रफुल्लित महसूस करते हो
चाँद ने
चांदनी को मुस्कुराकर
उसके प्रश्न का उत्तर दिया और कहा
जिस तरह मेरी खूबसूरती का पर्याय
सूर्य की किरणें हैं
उसी तरह इस धरती पर
सबका अस्तित्व कहीं न कहीं
एक – दूसरे पर निर्भर होता है
जैसे
शिष्य का पूर्ण मानव होना ,
आदर्शवान होना , शीर्ष मुकाम हासिल करना
उसके शिक्षक पर निर्भर होता है
जैसे
गुरु का स्थान
शिष्य के जीवन में
संस्कृति व संस्कारों का विस्तार ,
धर्म राह पर अग्रसर होना ,
अंत में मोक्ष प्राप्ति
क्या ये सब गुरु के अभाव में
संभव हो पायेगा
धरती पर जीवन का पुष्ट होना
रात्रि की चांदनी का प्रभाव है
वर्षा के अभाव में
क्या धरती पर जीवन संभव हो सकेगा  
क्या गुरुकुल न हों तो
संस्कृति व संस्कारों का प्रचार हो पायेगा,
क्या आदर्शों की राह पर बच्चे चल सकेंगे ,
क्या संकल्प मार्ग बच्चों की राह हो सकेगी
तुम्हीं चिंतन कर देखो
ए मेरी प्यारी चांदनी
बताओ क्या तुम्हारा अस्तित्व मुझसे नहीं है
क्या तुम स्वयं में पूर्ण हो
इस धरा पर
जीवन के प्रत्येक क्षण पर
हमारा एक दूसरे पर निर्भर होना
हमारे भीतर          
सामाजिकता , मानवता , संस्कारों व संस्कृति के
प्रचार की भावना को बल देता है
यही विशेषता हमें
पूर्ण मानव होने का आभास कराती है



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