Sunday, 2 July 2017

गधा चालीसा - व्यंग्य

गधा चालीसा - व्यंग्य 
 
गधों को ये मालूम न था , उनके भी दिन फिरेंगे
उन पर भी लिखी जायेंगी कवितायें, वे नेताओं की जुबां पर चढ़ेंगे

नेताओं की गधों पर बकबक का , गधे मज़ा ले रहे हैं
खुद को मीडिया पर पाकर , खुश हो रहे हैं

एक ज़माना था , इनको कोई पूछता न था
लोग आज गधे पर , डिबेट कर रहे हैं

गधों के दिन भी आज, फिरने लगे हैं
मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमन्त्री तक के ,लबों पर ये सजने लगे हैं

खुद को नेताओं के बीच पाकर , ये खुश हो रहे हैं
नेताओं और गधों के बीच का अंतर घटता देख ,ये खुशी से लबरेज
हो रहे हैं

कुर्सी की दौड़ ने नेताओं को ,कहाँ तक गिराया है
शेर, चीता , भालू छोड़, इन्हें गधे से मिलाया है

सीमा पर मरते जवानों की , नेताओं को सुध नहीं
कर्ज से मरते किसानों की ,इनको परवाह नहीं

राग कुर्सी का अलापते , कुर्सी के लोभी नेता
एक दूसरे को गधा बताने से ,हिचकते नहीं नेता

हमको खुशी इस बात की , गधों के दिन फिरे भैया
इस भटकती राजनीति की नैया को, अब गधे ही संभालें
भैया

मानव रूपी गधों , अब शर्माने की जरूरत नहीं तुमको
नेताओं की जमात में शामिल होने से ,डरने की जरूरत नहीं
तुमको

हम तो कहते हैं मानव रुपी गधे ,अब तुम पढ़ना लिखना
छोड़ो
हो सके तो तुम की ,इस नेतागिरी की रेस मैं दौड़ो

पर मेरे भैया एक बात का ,तुम रखना ख्याल
नेता बेशक हो जाएँ गधे, पर वोटर गधे नहीं होते भैया

हमें  तुमसे उम्मीद है तुम, गधों की बकबक में शामिल नहीं
होगे
जीतोगे विश्वास ल्रोगों का, कुर्सी से मोह छोड़ोगे

देश सेवा, समाज सेवा, तुम्हारी जिन्दगी का मकसद होगा
बेशक कुर्सी पर बैठने वाला  , मानव रुपी गधा होगा

हम इसी उम्मीद से ये , गधा चालीसा ख़त्म करते हैं
देश को जाति , धर्म से ऊपर समझते हैं

मेरे गधे रुपी नेताओं , इस देश को बचाकर रखना
मिट जाए शख्सियत तुम्हारी, पर इस देश पर खुद को
न्योछावर करना

गधों को ये मालूम न था , उनके भी दिन फिरेंगे
उन पर भी लिखी जायेंगी कवितायें, वे नेताओं की जुबां पर चढ़ेंगे

नेताओं की गधों पर बकबक का , गधे मज़ा ले रहे हैं
खुद को मीडिया पर पाकर , खुश हो रहे हैं

एक ज़माना था , इनको कोई पूछता न था
लोग आज गधे पर , डिबेट कर रहे हैं



आप उड़ने के लिये पैदा हुए हैं , तो रेंगते हो क्यूं


जब आप उड़ने के लिए पैदा हुए हैं तो रेंगते हो क्यूं

'जब आप उड़ने के लिए पैदा हुए हैं तो , रेंगना चाहते हो क्यूं
'जब आप जीने के लिए पैदा हुए हैं तो , मरना चाहते हो क्यूं

अपनी खुशियों को बॉट दूसरों के ग़मों का हिस्सा ,बनते नहीं हो क्यूं
क्यों भटकते हो यहाँ से वहां , खुदा की राह पर चलते नहीं हो क्यूं

जिन्दगी चार दिनों का मेला, तो इसे जीते नहीं हो क्यूं
खुदा के बन्दों की खिदमत को, खुदा की इबादत समझते नहीं हो क्यूं

पाक दामन की आरज़ू लिए, इस दुनिया में जीते नहीं हो क्यूं
किसी ग़मगीन के ज़ख्मों पर, मरहम लगाते नहीं हो क्यूं

 मुसीबतों के इस दौर में , रिश्तों की लॉ जलाते नहीं हो क्यूं
खुद को कहते हो इंसान फिर, संस्कारों से नाता बनाते नहीं हो क्यूं

चार दिन की जिन्दगी मैं , इबादत को मज़हब बनाते नहीं हो क्यूं
खुद को एक अदद , चाँद सा रोशन बनाते नहीं हो क्यों

'जब आप उड़ने के लिए पैदा हुए हैं तो , रेंगना चाहते हो क्यूं
'जब आप जीने के लिए पैदा हुए हैं तो , मरना चाहते हो क्यूं

अपनी खुशियों को बॉट दूसरों के ग़मों का हिस्सा ,बनते नहीं हो क्यूं
क्यों भटकते हो यहाँ से वहां , खुदा की राह पर चलते नहीं हो क्यूं






एक दूसरे के गम में - मुक्तक

१.

'एक दूसरे के गम में , हम साथ न थे कभी
दोस्ती का जाम . यूं ही पिये जा रहे हैं हम


२.


दुश्मनी का दंझ भर रहे हैं, जो कभी हुआ करते थे दोस्त
दोस्ती भी खूब निभाई , चलो अब दुश्मनी की बारी हैं


3.


खुद पर तू न इतरा खुद पर न तू गुमान कर
'फलक से फर्श पर आने में, वक़्त कहाँ लगता हैं

4.



अपनी कोशिशों के जोर से , खुद को फलक पर बिठा के देख
कोशिशों से मुंह फेरने वालों का, खुदा भी सगा नहीं होता



व्यंग्य - 4

व्यंग्य

नोटबंदी मैं सारे हर नोट , गुलाबी हो गए
बाकी सारे नोट , कबाड़ हो गए

कीमत घट सही हैं. नोटों की दिन - ब - दिन
हजार के नोट अब, सौं के बराबर हो गए

गरीबों की थाली से व्यंजन , गायब हो गए
सपने गरीबों की आँखों से, ओझल हो गए

कीमत पहुँच रही आसमों पर, करें तो क्या करें
इस महेंगाई के दौर मैं, 7 पे कमीशन' के लाले हो गए.

नेताओं की तनख्वाह सवा लाख से, ढाई लाख हो गयी.
गरीबों के किचन पर अब, ताले हों गए

जीना हुआ मुहाल बताओ, करें तो क्या करें
नेताओं के सूट अब, लाखों के हो गए

कहते थे आयेंगे, जिन्दगी मैं अच्छे दिन
अच्छे दिनों के सपने, बस सपने हो गए

नोटबंदी में हे नोट, गुलाबी हो गए
बाकी सारे नोट , अब कबाड़ हो गए

कीमत घट सही हैं. नोटों की दिन - ब - दिन
हजार के नोट अब, सौं के बराबर हो गए

गरीबों की थाली से व्यंजन , गायब हो गए
सपने गरीबों की आँखों से, ओझल हो गए




व्यंग्य - 5

व्यंग्य

संसद मैं सांसदों की थाली , कुछ है अजब निराली
कुछ सब्जियां जेब की , कुछ सब्सिडी वाली

नेता जनता से कहते हैं , सिलिंडर पर सब्सिडी छोड़ो
हमारे प्रिय नेताओं तुम भी हो सके तो .
अपनी थाली की सब्सिडी वाली सब्जियां छोड़ो

कुछ सब्जियां गरीबों की रसोई में , सीधे पहुँच जायेंगी
लगेगी कुछ गैस कम, महिलायें भी खुश हो जायेंगी

देश के विकास का ठीकरा , केवल गरीब जनता के सिर पर मत फोड़ो
हो सके तो प्रिय नेताओं , अपनी सुविधाओं से मोह छोड़ो

लैपटॉप बांटना छोड़ो , ये स्कूटी बांटना छोड़ो
बेरोजगारी भत्ता बांटना छोड़ो, ये साइकिल बांटना छोड़ो

'छोड़ना ही है तो ये विदेशों का दौरा .सपरिवार जाना छोड़ो
खुद को बना गाँधी , लाखों के सूट पहनना छोड़ो

मत बांटो भारत माँ को , अलग - अलग राज्यों के चक्रव्यूह में फंसा
कोई राज्य अलग नहीं , इनसे मिलकर तो भारत बना

अपनी कुर्सी की चाह मैं ,खुद को नीचे गिराना छोड़ो
चलो मिल बनाएं नया भारत, ये आपस में लड़ना छोड़ो

कुछ किसानों की सौचें , कुछ जवानों की सोचें
कुछ युवाओं का बेहतर कल सोचें , कुछ नारियों की सुरक्षा सोचें

कुछ गरीबों का भला सोचें , कुछ धर्मों का सिला सोचें
'उठ जातिवाद से ऊपर , इस देश का भला सोचें

अब समय आ गया है, सीमाओं की सुरक्षा सोचें
 जिहोने अपने बेटे गंवाएं हैं , उनका भी भला सोचें

कर दें नेस्तोनाबूत आतंक को इस धरती से , कुछ ऐसा सोचें
करें विस्तार संस्कार और संस्कृति का , कुछ ऐसा सोचें

मंदिर और मस्जिद एक ही जगह पर हों , कुछ ऐसा करें
सभी मनाएं ईद और दिवाली मिलकर , कुछ ऐसा करें

चलो करें दिलों को फिर से रोशन , कुछ ऐसा करें
फहरे तिरंगा फिर से विश्व पताका होकर, कुछ ऐसा करें

कुछ सब्जियां जेब की , कुछ सब्सिडी वाली
नेता जनता से कहते हैं , सिलिंडर पर सब्सिडी छोड़ो

हमारे प्रिय नेताओं तुम भी हो सके तो .
अपनी थाली की सब्सिडी वाली सब्जियां छोड़ो

कुछ सब्जियां गरीबों की रसोई में , सीधे पहुँच जायेंगी
लगेगी कुछ गैस कम, महिलायें भी खुश हो जायेंगी

देश के विकास का ठीकरा , केवल गरीब जनता के सिर पर मत फोड़ो
हो सके तो प्रिय नेताओं , अपनी सुविधाओं से मोह छोड़ो