मेरी रचनाएं मेरी माताजी श्रीमती कांता देवी एवं पिताजी श्री किशन चंद गुप्ता जी को समर्पित
Sunday, 28 April 2013
Thursday, 18 April 2013
सोम स्तुति ( चन्द्र स्तुति )
सोम
स्तुति ( चन्द्र स्तुति )
चंद्रलोक के तुम हो स्वामी
हो प्रभु तुम नभ के वासी
हे मयंक प्रभु हे रजनीश
हे प्रकृति पोषक हे राकेश
हे विधु प्रभु सोम हमारे
हे रजनीश प्रकृति के दुलारे
हे कलानिधि हे मयंक तुम
कष्ट हरो प्रभु इंदु हमारे
हे निशाकर तुम लगते प्यारे
हे हिमांशु हे शशि हमारे
हे शशांक तुम देव हमारे
पुष्पित होते तुमसे हर अंश
कुदरत पाती तुमसे जीवन
यूं ही जीवन बरसाना तुम
ताल सरोवर पुष्ट करो तुम
शुभ ज्योत्स्ना बिखराओ तुम
खिला तरंगिणी छ जाओ तुम
अमृता सुधा हो बरसाते तुम
कौमुदी चन्द्रिका धरा लाते तुम
हे चाँद हे चंद्रमा तुम
नभ में लगते सबसे प्यारे तुम
पुष्ट करो हम सबका जीवन
खिल जाए हर इक तन मन |
राम
स्तुति
रघुनन्दन हे सबके प्यारे
रामचंद्र तुम सबके दुलारे
कौशल्या को तुम हो प्यारे
दशरथ नंदन सबके प्यारे
जय सीतापति जय हो राघव
जय दशरथी जय जानकी बल्लभ
जय रघुनन्दन जय श्री राम
रावण को तुमने है तारा
प्रिय विभीषण को गले लगाया
सुग्रीव ने तुमसे जीवन पाया
सबरी को भी मोक्ष दिलाया
आदर्शों के तुम सो स्वामी
हे प्रभु हे अन्तर्यामी
अहिल्या ने भी जीवन पाया
असुरों को भी प्रभु पार लगाया
बने सबकी आँखों के तारे
घर – घर आओ राम हमारे
राम-राम जय राम – राम
कर दो सबके पूर्ण काम
निर्मल कर दो सबकी काया
हर लो प्रभु जी सारी माया
रघुनन्दन हे सबके प्यारे
रामचंद्र तुम सबके दुलारे
लब पे आये मेरे खुदा नाम तेरा
लब पे
आये मेरे खुदा नाम तेरा
लब पे आये मेरे खुदा नाम तेरा
सुबह हो या शाम ओ मेरे खुदा
तेरे दीदार की हसरत हो मुझे
तेरी कायनात से मुहब्बत हो मुझे
हर इक शै से रूबरू करना मुझे
अपने हर इक इल्म से नवाजो मुझको
अपने दर का नूर बना लो मुझको
मैं चाहता हूँ तेरा करम हो मुझ पर
तेरा एहसास आसपास मेरे हो अक्सर
गरीबों का सहारा बनूँ ओ मेरे खुदा
लोगों की आँखों का तारा बनूँ ओ मेरे खुदा
मुझे भी आसमां का इक तारा कर दो
खिलूँ मैं चाँद की मानिंद कुछ ऐसा कर दो
ए खुदाया तेरी रहमत तेरा करम हो मुझ पर
तेरे साए में गुजारूं ये जिन्दगी ओ खुदा
तू आसपास ही रहना मेरा रक्षक बनकर
तेरे क़दमों पे बिछा दूं ये जिन्दगी मौला
मैं तुझे चाहूँ तुझे अपनी जिन्दगी से परे
कि मैं वार दूं खुद को तुझ पर ए खुदा
कुछ ऐसा करना मैं रहूँ तेरे करम के काबिल
तुझे हर वक़्त दिल के करीब पाऊँ ए मेरे खुदा
लब पे आये मेरे खुदा नाम तेरा
सुबह हो या शाम ओ मेरे खुदा
Sunday, 14 April 2013
कुछ चंद एहसास
कुछ चंद एहसास
काट कर रख दिए हैं पर उसने मेरे
चाह कर भी उड़ नहीं सकता यारो
गर रजा है उसकी मेरे न उड़ने में
तो पर
पाकर भी क्या करूंगा यारों |
खिलते हैं फूल घर में उसी के
जिन्हें फूलों से प्यार है
फूलों बगैर जिन्दगी
होती
वीरान है |
इस दुनिया के खेल भी अजब निराले
हैं
कहीं खुशियों की परवाह नहीं
कहीं खुशियों के लाले हैं
कहीं फिकता है खाना सड़कों पर
और
कहीं एक- एक
टुकड़े रोटी के लाले हैं |
बिन पंखों के जी रहा हूँ मैं
कटे पंखों के सहारे जी रहा हूँ मैं
फिर भी दूर आसमान में
बसेरा
बनाने की है चाहत मेरी |
पन्नों पर शब्दों को तराशने का
दौर अब भी है जारी
ये वो
शै है
जिसकी
कोई स्याह रात नहीं
छू लेंगे हम आसमान
छू लेंगे हम
आसमान
छू लेंगे हम आसमान
कर्तव्य को सीढ़ी बनाकर
बह चलेंगे पवन की तरह
दूर उस आसमान की ओर
छू लेंगे हम आसमान
चिलचिलाती धूप हो या
हो सुबह का सफर
थाम कर बाहें गगन की
चूम लेंगे हम आसमान
छू लेंगे हम आसमान
सागर का फिर जलजला हो
या हो गर्म हवाओं की लहर
चीर कर सीना सभी का
हम आगे बढते जायेंगे
छू लेंगे हम आसमान
गाँधी हो या फिर सुभाष
चलते उनके विचारों के साथ
पाताल के सीने में खंजर उतार
ज्ञान रुपी हीरे हम ढूंढ लायेंगे
छू लेंगे हम आसमान
सबने कहा आसमान से
तारे तोडना है असंभव
हम तो चाँद चूम बैठे
तारों की क्या बात है
छू लेंगे हम आसमान
जंगल की आग
जंगल की आग
जंगल की आग देखकर
सिहर उठता हू मैं
सोचता हूँ उस सूक्ष्म जीव
का क्या हुआ होगा
जो अभी- अभी किसी अंडे से
बाहर आया होगा
आँखें अभी उसकी खुली भी नहीं
तन पर जिसके अभी ऊर्जा आई ही नहीं
जंगल की आग देखकर सिहर उठता हू मैं
शेर के उस छोटे से बच्चे का
अंत कितना भयावह रहा होगा
अभी तो उसने अपनी माँ के
दूध का आचमन भी न किया होगा
वह अपने भाई बहनों के साथ खेल भी ना सका
कि मौत के खेल ने अपना रंग दिखा दिया
जंगल की आग देखकर सिहर उठता हू मैं
उन छोटी – छोटी चीटियों की भी बात करें हम
टिक-टिक कर रेंगती यहाँ से वहाँ
क्या हुआ होगा इनका
अंडे इनके अपने बच्चों को इस धरती पर
बाहर भी न ला पाए होंगे
कि जंगल की आग ने इन्हें अपनी आगोश में ले
लिया होगा
जंगल की आग देखकर सिहर उठता हू मैं
बात हम उनकी भी करें जंगल जिनका जीवन स्थल है
वे झोपड़ी बना जंगल पर आश्रित रहते हैं
रोज का भोजन रोज एकत्रित करने वाले ये जीव ये प्राणी
क्या इन्हें बाहर भागकर आने का मौक़ा मिला होगा
या चारों और फैलती भयावह आग ने इन्हें निगल लिया होगा
जंगल की आग देखकर सिहर उठता हू मैं
ये जंगल की आग केवल जंगल की आग ही नहीं
वरन समाज में फ़ैली कुरीतियों की ओर भी संकेत देती हैं
दंगा , आतंकवाद भी समाज में जंगल की आग की तरह
सब कुछ नष्ट कर मानव जीवन को बेहाल करती है
क्षेत्रीयतावाद, जातिवाद, धर्मवाद आज भी
जंगल में आग की तरह हमारा पीछा नहीं छोड़ रहे
ये आग देखकर सिहर उठता हूँ मैं
इस आग में जलते मानव को, झुलसते मानव को
देख रो पड़ता हूँ मैं रो पड़ता हूँ मैं
जंगल की आग देखकर सिहर उठता हू
मैं
जंगल की आग देखकर सिहर उठता हू मैं
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