वक्त के दोराहे पर खड़ा आदमी
वक्त के दोराहे पर खड़ा आदमी , कुछ असमंजस में
वक्त की ये नाइंसाफी , मुझसे देखी नहीं जाती
क्यों कर तरसते दो वक्त की रोटी , को कुछ लोग
बड़े घरों में हो रही , अन्न की बेकद्री मुझसे सही नहीं जाती
लोगों को गिराकर आगे बढ़ने की, चल पड़ी है होड़
यूं इंसानों के हाथ इंसान की होती बेइज्जती , मुझसे सही नहीं जाती
बेच दिया है ईमान उन्होंने, एक अदद कुर्सी के लिए
यूं अपने ही लोगों के हाथ , देश की दुर्गति होते देखि नहीं जाती
लालसा और अहम् की अंधी दौड़ में , अपनों को ही पराया करते लोग
यूं अपनों के द्वारा , रिश्तों की बेकद्री मुझसे सही नहीं जाती
चीरहरण की घटनाओं ने , उम्र की सीमा को पीछे छोड़ा
यूं हो रही, शीलभंग की घटनाओं की त्रासदी मुझसे सही नहीं जाती
वक्त के दोराहे पर खड़ा आदमी , कुछ असमंजस में
वक्त की ये नाइंसाफी , मुझसे देखी नहीं जाती