Tuesday, 15 April 2014

कालचक्र में उलझे



कालचक्र में उलझे

कालचक्र में उलझे सब , क्षितिज के निशाँ नहीं
क्या सोचकर मंजिल की कल्पना में डूबे  ?

दृष्टिकोण में अब दूरदर्शिता रही नहीं
क्या सोचकर कल्पना की ऊँची उड़ान में डूबे  ?

निर्दोष , निरपराध न हुए नयन अब    
घूरते उस खूबसूरत यौवना का तन

नयनों की पवित्रता अब मकड़जाल में उलझी
क्या सोच मोक्ष की कल्पना में डूबे ?

निर्वासित सा जीवन जी रहे हैं सब
राष्ट्रप्रेम अब दिलों का नूर नहीं  

अब यौवन देश हित न्योछावर होते नहीं
क्या सोच स्वतन्त्र राष्ट्र की कल्पना में डूबे ?

निर्विकार चरित्रों का अभाव झेलता समाज
आदर्शों की स्थापित नहीं करता राह आज का युवा

दुश्चरित्रों से जूझता संस्कारित प्राणी
क्या सोच स्वस्थ समाज की कल्पना में डूबे ? 


अभिव्यक्ति सुविचारों की हो गयी कल्पना का विषय
अनुयायी संस्कारों के हो गए भ्रम का विषय

आतिथ्य , अभिनन्दन अब हो गए स्वयं के स्वार्थ का विषय
फिर क्यों अपेक्षाओं सागर की कल्पना में डूबे ?

अनपढ़ ही थे तो क्या बुरे थे
अतिमहत्वाकांक्षी न थे तो क्या बुरे थे

संतुष्ट थे दो रोटी , कपड़ा झोपडी में
फिर क्यों आसमान छूने की कल्पना में डूबे ?






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