Friday, 30 March 2012

मुझे तेरे करम का एहसास हो

मुझे तेरे करम का एहसास हो


मुझे तेरे करम का एहसास हो
तू यहीं कहीं मेरे आसपास हो
थक जाऊं तो सहारा देना
गिरने जो लगूं तो संभाल लेना
तेरे  रहमत तेरे करम का साया हो
या मै यहाँ रहूँ या वहाँ रहूँ
किस्सा ए जिंदगी सुकून से चले
हर वक्त तेरा नाम मेरी जुबान पे रहे
कि जागूं तो बसर रह जुबान पे मेरी
और जुस्तजू तेरी ख्वाब में भी बरकरार रहे
तूने खिलाया है सभी को गोदी में लेकर
तेरा ये प्यार हम पर भी बरकरार रहे
एहसास -ए -करम हम पर ताउम्र रहे
हमेशा तू यहीं कहीं मेरे आसपास रहे
मंजिल मेरे खुदा तू मुझे नज़र करना
तेरे करम का चर्चा हो गली – गली
इतना रहम हम पर तासहर करना

कवि पंख हुए विस्तृत

कवि पंख हुए विस्तृत


कवि पंख हुए विस्तृत
हुए विस्तृत हुए व्यापक
सोच बदली बदले नियम
विषय हुए विस्तृत हुए व्यापक
करवटें बदलती सभ्यता
करवटें बदलता समाज
विकृत होती मानसिकता
उबाल पर काम का प्रभाव
संस्कार उभरे रूढ़ीवादी विचार बन
संस्कृति उभरी मनोरंजन का स्वर बन
सद्विचारों का प्रभाव दिख रहा
पनप रहा मनचलापन
अजीब सा बहाव है 
पसार रहा पाँव है
पुण्य छीण हो रहे
विलासिता का भाव है
धर्म पर अधर्म की मुहर
सत्य आज असहाय है
चीख – चीख पुकारती
मानवता आज है
फूलों से खुशबू  खो रही
अंगडाई आंसू – आंसू रो रही
नेत्र हुए विकराल हैं
सतीत्व को न छाँव है
देवालय  शून्य में झांकते
मानव इधर उधर भागते
अस्तित्व का पता नहीं
कि राह किधर है कहाँ
कि पुण्यात्मा कहैं किसे
कि मस्तक चरण धरें किसे
कि मोड़ जीवन का है ये कैसा
कि अब गिरे कि कब गिरे
शून्य में हम झांकते
रोशन दीये के तले
कि कैसा ये बहाव है
न कोई आसपास है
कि अंत का पता नहीं
कि अगले पल कि खबर नहीं
फिर भी मोहपाश है
कि टूटता नहीं कि छूटता नहीं
नव विचार कर रहे विव्हल
कि चूर – चूर ये जवानियाँ
प्रयोग दर प्रयोग बढ़
मिटा रहे निशानियां
कि हाथ तेरे कुछ न तेरे है
कि हाथ कुछ न मेरे है
कि हम भागते तुम भागते
कि हम भागते बस भागते
कि सुकून न मिल रहा यहाँ
क्या चैन मिलेगा वहाँ
कि दो पल को रुक सकूँ खुदा
कि खुद की खोज कर सकूं
कि राह दिखलाना मुझे
कि पनाह में अपनी तू ले मुझे
कि मै गिरूं तो तू संभाल ले
हो सके तो तू करार दे
कवि पंख हुए विस्तृत
हुए विस्तृत हुए व्यापक



असंस्कृत हुई भाषा

असंस्कृत हुई भाषा


असंस्कृत हुई भाषा
असभ्य होते विचार
असमंजस के वशीभूत जीवन
संकीर्ण होते सुविचार
अहंकार बन रहा परतंत्रता
असीम होती लालसा
जिंदगी का ठहराव भूलती
आज कि जिंदगी
‘ट्वीट’ के नाम पर
हो रही बकबक
असहिष्णु हो रहा हर पल
ये कौन सी आकाशगंगा
आडम्बर हो गया ओढनी
आवाहन हो गयी बीती बातें
मधुशाला कि ओर बढ़ते कदम
संस्कार हो गए आडम्बर
ये कैसा कुविचारों का असर
संस्कृति माध्यम गति से रेंगती
विज्ञान का आलाप होती जिंदगी
धार्मिकता शून्य में झांकती
मानवता स्वयं को
अन्धकार में टटोलती
ये कैसी कसमसाहट
ये कैसा कष्ट साध्य जीवन
कांपती हर एक वाणी
काँपता हर एक स्वर
मानव क्यों हुआ छिप्त
क्यों हुआ रक्तरंजित
समाप्त होती संवेदनाएं
फिर भी न विराम है
कहाँ होगा अंत
समाप्त होगी कहाँ ये यात्रा
न तुम जानो न हम ...........