Sunday, 25 May 2014

सपनों की महफ़िल में


वक्त के आँचल में


वो अलफ़ाज़ कहाँ से लाऊँ




आओ चलें कुछ दूर

आओ चलें कुछ दूर

आओ चलें कुछ दूर
साथ – साथ
लेकर विचारों की बारात

आओ चलें

बैठ नदी के तीर
दें चिंतन को नींद से उठा
कुछ वार्तालाप करें

बीते दिनों के
उन सामाजिक परिदृश्यों पर
जिन्होंने जीवंत किया

धार्मिकता , सामाजिकता को
मानवता को , मानव मूल्यों को

आओ चलें , बात करें
उस समय के बहाव की

मानव का धर्म के प्रति मोह की
मानव मूल्यों की प्रतिदिन की खोज की

विवश करती है हमें
हम चिंतन शक्ति को ना विराम दें

आओ चलें कुछ दूर

वर्तमान सामाजिक परिदृश्य पर चिंतन करें
उन कारणों को खोजें

जिसने मानव मूल्यों के प्रति
आस्था को कम किया

मानवता रुपी संवेदनाओं को भस्म किया

आओ चलें कुछ दूर

चिंतन की परम श्रद्धेय स्थली की ओर
चिंतन करें , मानव पतन के कारणों पर

ऐसा क्या था विज्ञान में

ऐसा क्या दे दिया विज्ञान ने
किस रूप में हमने विज्ञान को वरदान समझा

विज्ञान के अविष्कारों की चाह में हमने क्या खोया , क्या पाया
उत्तर खोजेंगे तो पायेंगे

हमने खोया
सामाजिक विज्ञान ,

मानव के मानव होने का कटु सच,
हमने खोया , मानव की मानवीय संवेदनाओं का सच ,

साथ ही खोया
स्वयं के अस्तित्व की पहचान

हमारी इस पुण्य धरा पर उपस्थिति

क्यों संकुचित होकर रह गयी हमारी भावनायें
क्यों हुआ आध्यात्मिकता से पलायन

क्यों पड़ा हमारी संस्कृति वा संस्कारों पर
विज्ञान का विपरीत प्रभाव

शायद
भौतिक सुख  की लालसा
विलासिता से वास्ता

जीवन के चरण सुख होने का एहसास देते
भौतिक संसाधनों की भेंट चढ़ गया

शायद यही , शायद यही , शायद यही .............