Monday 16 April 2018



वक्त के दोराहे पर खड़ा आदमी 


वक्त के दोराहे पर खड़ा आदमी , कुछ असमंजस में 
वक्त की ये नाइंसाफी , मुझसे देखी नहीं जाती 

क्यों कर तरसते दो वक्त की रोटी , को कुछ लोग 
बड़े घरों में हो रही , अन्न की बेकद्री मुझसे सही नहीं जाती 

लोगों को गिराकर आगे बढ़ने की, चल पड़ी है होड़ 
यूं इंसानों के हाथ इंसान की होती बेइज्जती , मुझसे सही नहीं जाती 

बेच दिया है ईमान उन्होंने, एक अदद कुर्सी के लिए 
यूं अपने ही लोगों के हाथ , देश की दुर्गति होते देखि नहीं जाती 

लालसा और अहम् की अंधी दौड़ में , अपनों को ही पराया करते लोग 
यूं अपनों के द्वारा , रिश्तों की बेकद्री मुझसे सही नहीं जाती 

चीरहरण की घटनाओं ने , उम्र की सीमा को पीछे छोड़ा 
यूं हो रही, शीलभंग की घटनाओं की त्रासदी मुझसे सही नहीं जाती 

वक्त के दोराहे पर खड़ा आदमी , कुछ असमंजस में 
वक्त की ये नाइंसाफी , मुझसे देखी नहीं जाती 






भागती दौड़ती जिन्दगी - ग़ज़ल

भागती दौड़ती जिन्दगी--गज़ल

भागती दौड़ती , जिन्दगी में
दो पल  सुकून की , मोहलत तो दे

जी रहे हैं जो सिसकती , साँसों के संग
उन्हें दो पल  की , मुस्कराहट तो दे

अजीब सा खालीपन है , जिन्दगी में
दो पल की खुशियों , ही तो दे

पाक दामन की आरज़ू लिए , जियें हम सब
इतना तो हम पर , करम कर दे

तनहा - तनहा गुजर रही है जिन्दगी मेरी
दो पल के लिए ही , किसी को मेरा हमसफ़र कर दे

इस गुलशन में , अजब सा खालीपन है
दो फूल इस गुलशन की , नज़र कर दे

गीत बनकर छा जाएँ , लबों पर सबके
मेरी कलम को इस हद तक , रोशन कर दे

मुझे किसी से गिला या , शिकवा नहीं
मैं खुद से प्यार करूँ , बस इतना करम कर दे